भोपाल के डा. बशीर बद्र उर्दू के एक ऐसे शायर हैं जिनकी सहज भाषा और गहरी सोच
उन्हें गजल प्रेमियों के बीच एक ऐसे स्थान पर ले गई है जिसकी बराबरी कर पाना
मुश्किल है ।
"दुश्मनी जमकर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त्त हो जायें तो शर्मन्द् न हों"
कभी कभी लोगों के दिल को पढ़ पाना कितना कठिन होता है । ऐसे ही लोगों के बारे में
बशीर साहब कहते हैं
"बहुत से लोग दिल को इस तरह महफूज रखते हैं
कोई बारिश हो ये कागज जरा भी नम नहीं होता"
और जब उनकी कलम से प्यार की रसभरी फुहार टूटती है तो देखिये ना नशा किस तरह
उतरता है
"कौन आया रास्त्त्त्ते आईनाखाने हो गए
रात रौशन हो गई दिन भी सुहाने हो गए"
"मेरी पलकों पर ये आँसू प्यर की तौहीन हैं
उसकी आँखों से गिरे, मोती के दाने हो गए"
और चलते चलते उनकी बेहद मशहूर पंक्तियाँ
"हमारा दिल सवेरे का सुनहरा जाम हो जाए
चरागों की तरह आखें जलें, जब शाम हो जाए
मैं खुद भी एहतियातन उस गली से कम गुजरता हूँ
कोई मासूम क्य्य्य्यों मेरे लिये बदनाम हो जाए
मुझे मालूम है उसका ठिकाना फिर कहाँ होगा
परिन्द् आसमाँ छूने में जब नाकाम हो जाए
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए"
आँसुओं में धुली खुशी की तरह, रिश्ते होते हैं शायरी की तरह
जब कभी बादलों में घिरता है, चाँद लगता है आदमी की तरह
सब नजर का फरेब है वर्ना, कोई होता नहीं किसी की तरह
उदास आँखों से आँसू नहीं निकलते हैं, ये मोतियों की तरह सीपियों में पलते हैं
मैं शाह राह नहीं रास्त्त्त्ते का पत्थर हूँ, यहाँ सवार भी पैदल उतर कर चलते हैं
उन्हें कभी नहीं बताना मैं उनकी आँखें हूँ, वो लोग फूल समझकर मुझे मसलते हैं
ये एक पेड़ है आ इस से मिलकर रों लें हम, यहाँ से तेरे मेरे रास्ते बदलते हैं
कई सितारों को मैं जानता हूँ बचपन से, कहीं भी जाऊँ मेरे साथ साथ चलते हैं
बशीर बद्र जी की ये एक बेहद मशहूर गजल है ये ! इसके चंद शेर आप सब की खिदमत
में हाजिर हैं
कोई फूल धूप की पत्तियों में हरे रिबन से बँधा हुआ
ये गजल का लहजा नया नया न कहा हुआ ना सुना हुआ ।
जिसे ले गई है अभी हवा, वो वर्क्क्क्क था दिल की किताब का
कहीं आँसुओं से मिटा हुआ, कहीं आँसुओ से लिखा हुआ ।
वर्क - पन्ना
कई मील रेत को काटकर, कोई मौज फूल खिला गई
कोई पेड़ प्यास से मर रहा, नदी के पास खड़ा हुआ ।
मौज - हवा
वो ही शहर हैं वो ही रास्ते, वो ही घर है और वो ही लान भी
मगर इस दरीचे से पूछना, वो दरख्त अनार का क्या हुआ ।
कुछ नये शेर जोड़ रहा हूँ जो मुझे पसन्द हैं :
---
ज़िन्दगी तूनें मुझे कब्र से कम दी है ज़मीं
पाँव फ़ैलाऊँ तो दीवार में सर लगता है ।
---
जी बहुत चाहता है सच बोलें
क्या करें हौसला नहीं होता ।
---
कोई हाथ भी न मिलायेगा, जो गले लगोगे तपाक से
ये नये मिज़ाज का शहर है, ज़रा फ़ासले से मिला करो ।
---
इतनी मिलती है मेरी गज़लों से सूरत तेरी
लोग तुझ को मेरा महबूब समझते होंगे ।
---
वो ज़ाफ़रानी पुलोवर उसी का हिस्सा है
कोई जो दूसरा पहनें तो दूसरा ही लगे ।
---
लोग टूट जाते हैं एक घर बनानें में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलानें में।
---
पलकें भी चमक जाती हैं सोते में हमारी,
आँखो को अभी ख्वाब छुपानें नहीं आते ।
---
तमाम रिश्तों को मैं घर पे छोड़ आया था.
फ़िर उस के बाद मुझे कोई अजनबी नहीं मिला ।
---
मैं इतना बदमुआश नहीं यानि खुल के बैठ
चुभनें लगी है धूप तो स्वेटर उतार दे ।
बद्र साहब की एक निहायत खूबसूरत गजल पेश है जिसे जगजीत सिंह ने गाया भी है ।
सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा
इतना मत चाहो उसे, वो बेवफा हो जाएगा ।
हम भी दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है
जिस तरफ भी चल पड़ेंगे रास्त्त हो जाएगा ।
कितनी सच्चाई से, मुझसे जिंदगी ने कह दिया
तू नहीं मेरा तो कोई दूसरा हो जाएगा ।
मैं खुदा का नाम लेकर पी रहा हूँ दोस्तों
जहर भी इसमें अगर होगा, तो दवा हो जाएगा ।
सब उसी के हैं, हवा, खुशबू, जमीन- ओ- आस्माँ
मैं जहाँ भी जाऊँगा, उसको पता हो जाएगा ।
मैं सिर्फ देह ही नहीं हूँ, एक पिंजरा भी हूँ, यहाँ एक चिड़िया भी रहती है... एक मंदिर भी हूँ, जहां एक देवता बसता है... एक बाजार भी हूँ , जहां मोल-भाव चलता रहता है... एक किताब भी हूँ , जिसमें रोज़ एक पन्ना जुड जाता है... एक कब्रिस्तान भी, जहां कुछ मकबरे हैं... एक बाग भी, जहां कुछ फूल खिले हैं... एक कतरा समंदर का भी है ... और हिमालय का भी... कुछ से अनभिज्ञ हूँ, कुछ से परिचित हूँ... अनगिनत कणों को समेटा हूँ... कि मैं ज़िंदा हूँ !!! - हीरेंद्र
Friday, February 04, 2011
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
विदा 2021
साल 2021 को अगर 364 पन्नों की एक किताब मान लूँ तो ज़्यादातर पन्ने ख़ुशगवार, शानदार और अपनों के प्यार से महकते मालूम होते हैं। हिसाब-किताब अगर ...

-
"हम हैं बच्चे आज के बच्चे हमें न समझो तुम अक़्ल के कच्चे हम जानते हैं झूठ और सच हम जानते हैं गुड टच, बैड टच मम्मी, पापा जब...
-
रेप की ख़बरें तब से भयावह लगने लगी है, जबसे रेप का मतलब समझ में आया. मेरी एक दोस्त ने मुझे बताया था कि एक बार जब वो चौदह साल की थी तो उसके...
-
भोपाल के डा. बशीर बद्र उर्दू के एक ऐसे शायर हैं जिनकी सहज भाषा और गहरी सोच उन्हें गजल प्रेमियों के बीच एक ऐसे स्थान पर ले गई है जिसकी बराबरी...
4 comments:
लाजवाब प्रस्तुती। सहेज कर रख ली पोस्ट। बशीर बद्र जी की कलम को सलाम।
"बहुत से लोग दिल को इस तरह महफूज रखते हैं
कोई बारिश हो ये कागज जरा भी नम नहीं होता"
बसीर बद्र जी को पढवाने के लिए आभार
nice article.
"दुश्मनी जमकर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त्त हो जायें तो शर्मन्द् न हों"
khub likha hai...
aapka bohot bohot dhanyawad is adbhut sanghra ke liye :)
Post a Comment