मुनव्वर राना और शायरी
“मैं इक फकीर के होंठों की मुस्कुराहट हूँ
किसी से भी मेरी कीमत अदा नहीं होती "
"धुल गई है रूह लेकिन दिल को यह एहसास है,
ये सकूँ बस चंद लम्हों को ही मेरे पास है।"
"मेरी हँसी तो मेरे गमों का लिबास है
लेकिन ज़माना कहाँ इतना गम-श्नास है
हम न दिल्ली थे न मज़दूर की बेटी लेकिन
काफ़िले जो भी इधर आए हमें लूट गए
कच्चे समर शजर से अलग कर दिए गए
हम कमसिनी में घर से अलग कर दिए गए
मुझे सभांलने वाला कहाँ से आएगा
मैं गिर रह हूँ पुरानी इमारतों की तरह
ज़रा सी बात पर आँखें बरसने लगती थी
कहाँ चले गए वो मौसम चाहतों वाले
हमारे कुछ गुनाहों की सज़ा भी साथ चलती है
हम अब तन्हा नहीं चलते दवा भी साथ चलती है।
मैं पटरियों की तरह ज़मी पर पड़ा रहा
सीने से गम गुज़रते रहे रेल की तरह"
बेबसी के आलम में भी वो खुद्दारी की बात करते है–
"चमक ऐसे नहीं आती है खुद्दारी के चेहरे पर
अना को हमने दो दो वक्त का फाका कराया है
दिल ऐसा कि सीधे किए जूते भी बड़ों के
ज़िद इतनी कि खुद ताज उठा कर नहीं पहना
मियां मै शेर हूँ शेरों की गुर्राहट नहीं जाती
मैं लहजा नरम भी कर लूँ तो झुंझलाहट नही जाती"
बुज़ुर्गों के बारे में वो बड़ी बेबाकी से एक तरफ कहते है–
"खुद से चलकर नहीं ये तर्ज़े सुखन आया है,
पांव दाबे है बुज़ुर्गों के तो फन आया है।
मेरे बुज़ुर्गों का साया था जब तलक मुझ पर
मैं अपनी उमर से छोटा दिखाई देता रहा।"
जबकि दूसरी ओर कहते है—
"मेरे बुज़ुर्गों को इसकी खबर नहीं शायद
पनप सका नहीं जो पेड़ बरगदों में रहा।
इश्क में राय बुज़ुर्गों से नहीं ली जाती
आग बुझते हुए चूल्हों से नहीं ली जाती"
बच्चों के लिए उनकी राय है कि—
"हवा के रुख पे रहने दो ये जलना सीख जाएगा
कि बच्चा लड़खड़ाएगा तो चलना सीख जाएगा
इन्हें अपनी ज़रूरत के ठिकाने याद रहते है
कहाँ पर है खिलौनों की दुकां बच्चे समझते है।"
दो भाईयों के प्यार और रंजिश को वो यूँ देखते है–
"अब मुझे अपने हरीफ़ों से ज़रा भी डर नहीं
मेरे कपड़े भाइयों के जिस्म पर आने लगे।
तन्हा मुझे कभी न समझना मेरे हरीफ़
एक भाई मर चुका है मगर एक घर में है"
"जो लोग कम हो तो कांधा ज़रूर दे देना
सरहाने आकर मगर भाई भाई मत करना
आपने खुलके मोहब्बत नहीं की है हमसे
आप भाई नहीं कहते है मियाँ कहते है
कांटो से बच गया था मगर फूल चुभ गया
मेरे बदन में भाई का त्रिशूल चुभ गया"
मैं सिर्फ देह ही नहीं हूँ, एक पिंजरा भी हूँ, यहाँ एक चिड़िया भी रहती है... एक मंदिर भी हूँ, जहां एक देवता बसता है... एक बाजार भी हूँ , जहां मोल-भाव चलता रहता है... एक किताब भी हूँ , जिसमें रोज़ एक पन्ना जुड जाता है... एक कब्रिस्तान भी, जहां कुछ मकबरे हैं... एक बाग भी, जहां कुछ फूल खिले हैं... एक कतरा समंदर का भी है ... और हिमालय का भी... कुछ से अनभिज्ञ हूँ, कुछ से परिचित हूँ... अनगिनत कणों को समेटा हूँ... कि मैं ज़िंदा हूँ !!! - हीरेंद्र
Sunday, February 06, 2011
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
विदा 2021
साल 2021 को अगर 364 पन्नों की एक किताब मान लूँ तो ज़्यादातर पन्ने ख़ुशगवार, शानदार और अपनों के प्यार से महकते मालूम होते हैं। हिसाब-किताब अगर ...

-
"हम हैं बच्चे आज के बच्चे हमें न समझो तुम अक़्ल के कच्चे हम जानते हैं झूठ और सच हम जानते हैं गुड टच, बैड टच मम्मी, पापा जब...
-
रेप की ख़बरें तब से भयावह लगने लगी है, जबसे रेप का मतलब समझ में आया. मेरी एक दोस्त ने मुझे बताया था कि एक बार जब वो चौदह साल की थी तो उसके...
-
भोपाल के डा. बशीर बद्र उर्दू के एक ऐसे शायर हैं जिनकी सहज भाषा और गहरी सोच उन्हें गजल प्रेमियों के बीच एक ऐसे स्थान पर ले गई है जिसकी बराबरी...
3 comments:
You have done a nice job man.
Nice job dude
dhul gai he rooh lekin dil ko ye ahsas he....
ye sher munawar rana ka nahi hai ye line jawed
akhtar ki nazm manzar mai hain
Post a Comment