आते हैं रात में भी दिन के ही ख़्वाब मुझको
काँटे भी चल के आये देने गुलाब मुझको
आँखों में बच गया है थोड़ा सा अब भी पानी
नहीं चाहिए जी छोड़ो कोई हिसाब मुझको
जल रहा हूँ मैं तभी से क्या बताऊँ ये किसी से
कोई कह के हाँ गया था इक दिन तेज़ाब मुझको
बस यही है एक ख़्वाहिश न चाहूँ इससे ज़्यादा
गुज़रुं जिधर से दुनिया करे आदाब मुझको #हीरेंद्र
मैं सिर्फ देह ही नहीं हूँ, एक पिंजरा भी हूँ, यहाँ एक चिड़िया भी रहती है... एक मंदिर भी हूँ, जहां एक देवता बसता है... एक बाजार भी हूँ , जहां मोल-भाव चलता रहता है... एक किताब भी हूँ , जिसमें रोज़ एक पन्ना जुड जाता है... एक कब्रिस्तान भी, जहां कुछ मकबरे हैं... एक बाग भी, जहां कुछ फूल खिले हैं... एक कतरा समंदर का भी है ... और हिमालय का भी... कुछ से अनभिज्ञ हूँ, कुछ से परिचित हूँ... अनगिनत कणों को समेटा हूँ... कि मैं ज़िंदा हूँ !!! - हीरेंद्र
Friday, July 26, 2019
एक छोटी सी कविता
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विदा 2021
साल 2021 को अगर 364 पन्नों की एक किताब मान लूँ तो ज़्यादातर पन्ने ख़ुशगवार, शानदार और अपनों के प्यार से महकते मालूम होते हैं। हिसाब-किताब अगर ...

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