एक्सक्यूज
मी! सुनकर किनारे हट गया यह सो़च कर कि पीछे वाले को उतरना है शायद..आए
दिन मेट्रो में ये घटना सामान्य है..लेकिन, आज आवाज़ कुछ जानी-पहचानी थी!!
दोनों की नज़रें एक पल को मिली और उसी एक पल में मैं छः साल पीछे चला गया!
जब उससे आखरी बार बात हुई थी...इससे पहले कि कुछ कहता उसने टोक ही दिया-
आप? कैसे हैं? खुश हूँ...तुम कहो? अच्छी हूँ! ह्म्म्म...अच्छी नहीं बहुत
अच्छी हो आज भी, मैंने छेड़ते हुए कहा..दोनों
हँसते हैं..फिर, ध्यान आया कि उसका स्टेशन जा चुका है...पर उसे अफ़सोस नहीं
था...लगभग, छः साल बाद आज मिलना हुआ ..फिर, हम लोग काफी देर तक राजीव चौक
मेट्रो स्टेशन पर बतियाते रहे...मैंने कहा कि फेसबुक पर तो तुमने मुझे
ब्लाक कर रखा है पर रेडियो पर तुम्हारा प्रोग्राम मैं रोज़ सुनता हूँ!! क्या
कहती...कहा कि आपका मुस्कुराता हुआ चेहरा देख कर काँटा सा चुभता है..इसलिए
ब्लाक कर रखा है| फिर, एक एक कर कई परतें खुलती गयी...मुझे याद है हमारी
आखिरी मुलाक़ात..बहुत सारी खटास थी दोनों के मन में...फिर, वक्त की आपाधापी
में हम कभी रूबरू हो न सके..रूबरू तो छोडिये, कभी गुफ्तगू भी न हो सका...आज
न मालुम क्यों दोनों ने एक दूसरे को सॉरी भी कहा...अब चलती हूँ..बहुत देर
हो रही है...मेरा नंबर होगा आपके पास शायद| नहीं तो...फिर, उसने अपना नम्बर
बताया..यह कहते हुए कि बदल न सकी , इस उम्मीद में कि कभी तुम कॉल करो
शायद ...आप से तुम पर आ गयी थी हमारी ये मुलाक़ात...क्या कहता- बस इतना ही
कह सका ...हाँ, ठीक है जाओ...अब बहुत देर हो गयी है...
मैं सिर्फ देह ही नहीं हूँ, एक पिंजरा भी हूँ, यहाँ एक चिड़िया भी रहती है... एक मंदिर भी हूँ, जहां एक देवता बसता है... एक बाजार भी हूँ , जहां मोल-भाव चलता रहता है... एक किताब भी हूँ , जिसमें रोज़ एक पन्ना जुड जाता है... एक कब्रिस्तान भी, जहां कुछ मकबरे हैं... एक बाग भी, जहां कुछ फूल खिले हैं... एक कतरा समंदर का भी है ... और हिमालय का भी... कुछ से अनभिज्ञ हूँ, कुछ से परिचित हूँ... अनगिनत कणों को समेटा हूँ... कि मैं ज़िंदा हूँ !!! - हीरेंद्र
Thursday, September 19, 2013
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विदा 2021
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