Sunday, August 02, 2020

राखी पर पढ़िए एक भाई की पाती : हीरेंद्र झा

रक्षाबंधन विशेष: ‘दुनिया की सभी बहनों की कलाई पर स्नेह का एक धागा मेरा भी’: हीरेंद्र झा


आज देश भर में रक्षाबंधन का पर्व बड़ी ही धूम-धाम से मनाया जा रहा है। भाई- बहन के पवित्र रिश्ते का यह पर्व बेहद ख़ास होता है। इस दिन हर बहन अपने प्यारे भाई की कलाई पर राखी बांधती है और इसे एक प्रतीक के रूप में देखा जाता है कि भाई अपनी बहन की रक्षा करेगा। मुझे कहने दीजिए कि यह प्रतीक बहुत पहले ही बदल देना चाहिए था। सच तो यह है कि वो बहनें ही हैं जिनकी दुआएँ भाई की रक्षा करती रही हैं। भाई उनकी रक्षा करेंगे यह कहकर कहीं न कहीं हम बहनों को कमजोर आँकने की गलती सदियों से करते आए हैं। आज के दिन दुनिया की सभी बहनों की कलाई पर स्नेह का एक धागा मेरा भी हो, ताकि उनकी दुआएँ यूं ही करती रहें हम भाइयों की रक्षा!
लिखने वालों ने कभी दीदी और बहन पर उस तरह से कलम नहीं चलाई जिस तरह से माँ, बेटी या महबूब पर लिखा है। आखिर बहनों के साथ यह भेदभाव क्यों? मैं समझता हूँ दीदी या बहन इस दुनिया का एक मात्र ऐसा रिश्ता है जहां कोई मोल-भाव नहीं होता। जहां कोई अपेक्षा नहीं रहती। बरसों बाद मिलने पर भी दीदी अपने भाई को उसकी पसंदीदा डिश खिलाना नहीं भूलती। कभी कोई शिकायत नहीं करती। महीनों बाद भी फोन करो तो यह ताना नहीं मारती कि तुम तो भूल ही गए? यह सब मैं अपने अनुभव से लिख रहा हूँ।


इस दुनिया का हर वो भाई जिसकी एक भी दीदी हो, उसका बचपन एक राजकुमार की तरह ही गुज़रता है। मैं खुशनसीब हूँ कि मेरी अपनी सात दीदियां हैं और एक छोटी बहन भी। यक़ीनन मेरा बचपन दीदीयों की छाँव में एक राजकुमार की तरह ही गुज़रा है। मुझे याद है, बचपन में जब भी कभी मैं बाहर से खेल कर घर आता तो पलक झपकते ही मेरे सामने एक साथ दो,तीन गिलास पानी के होते। मैं एक-एक घूंट पानी सभी गिलासों से पीता। मेरी सभी दीदियों के हृदय को जैसे ठंडक मिल जाती! जब मैं स्कूल जाने लगा तब सब मिलकर मुझे स्कूल जाने के लिए तैयार किया करतीं। कोई शर्ट पहना रही होतीं तो कोई जूते। कोई मेरे घुँघराले बालों में कंघी कर रही होती तो कोई टिफिन पैक करके बैग में रख देती।
जब भी खेलते हुए मुझे थोड़ी भी देर हो जाया करती तो मैं देखता मेरी कोई न कोई दीदी मुझे खोजते हुए बुलाने को आ गई है। मैंने अपनी माँ को कभी रसोई घर में नहीं देखा। यह पंक्तियाँ लिखते हुए मुझे अपनी दीदियों के हाथों के बने आलू परांठे याद आ रहे हैं, घर छोड़ने के बीस बरस बाद भी वो स्वाद मैं कभी भूल ही नहीं सका। न ही कहीं चखने को मिला।
रंगोली, चित्रहार, रामायण, महाभारत, चंद्रकांता, जंगल बुक दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले ये सभी धारावाहिक मैंने अपनी दीदियों की गोद में बैठकर देखे हैं। मेरे पूरे अस्तित्व पर उन सबकी छाप है। क्या आपने कभी सोचा है कि सारे शास्त्र मातृ-ऋण और पितृ-ऋण की बात करते हैं पर वास्तव में बहनों के ऋण की बात कोई नहीं करता, जो हम कभी नहीं चुका पाते।
हमारा परिवार बड़ा था। बाबूजी सरकारी नौकरी में तयशुदा वेतन पाते थे। लेकिन, सम्मान और स्वाभिमान की सीख मुझे बहनों ने ही सिखाई है। एक-एक करके बाबूजी ने सबकी शादी कर दी और वे अपने घर चली गईं। मेरे बारहवीं पास करते-करते सभी दीदियों की शादी हो चुकी थी। शांति दीदी, क्रांति दीदी, नीलम दीदी, बेबी दीदी, नूतन दीदी, गीता दीदी, किरण दीदी बारी-बारी सब अपने ससुराल चली गईं। सबसे आखिर में छोटी बहन रूबी भी। मैं भी घर छोड़ कर कॉलेज के बाद आगे की पढ़ाई करने दिल्ली चला गया। पढ़ाई और करियर बनाने में ऐसा उलझा कि मैं भूल ही गया कि मैं सात दीदियों और एक बहन का भाई हूँ। आज तक किसी भी दीदी ने मुझसे कभी कोई शिकायत नहीं की। कोई उलाहना नहीं दी, कोई ताना नहीं मारा। बीते बरसों में जब भी उनसे मिला तो उनसे वही प्यार और अपनापन पाया जो दुनिया के और किसी रिश्ते में संभव नहीं। लॉक डाउन और कोरोना संकट के इस साल में भी हर बार की तरह मेरी राखियां मुझ तक पहुँच गई हैं, जिन्हें कलाई पर बांध कर मैं बड़े ताव से इतरा रहा हूँ।


मेरा यह लेख #जनसत्ता में 16 मई 2014 को प्रकाशित हुआ था।








हैप्पी फ्रेंडशिप डे : हीरेंद्र झा


मेरे साथ मेरी दोस्त निमिषा 


अतीत की स्मृतियों में जब भी कभी भटक रहा होता हूँ तो मैंने यही अनुभव किया है कि दोस्ती और मोहब्बत हाथों में हाथ लिए चलती हैं। यारा-दिलदारा जैसे जुमले यूँ ही तो नहीं बनते न?  मेरी सभी प्रेमिकायें मेरी अच्छी दोस्त भी रही हैं। यह बात हमारी पीढ़ी को 'कुछ कुछ होता है' के राहुल और अंजली ने बताई थी कि प्यार दोस्ती है। अगस्त का पहला रविवार हम दोस्ती के दिन के रूप में ही मनाते हैं।  जीवन में कम से कम एक दोस्त तो ऐसा होना ही चाहिए जिससे आप सब कुछ साझा कर सकें। दोस्ती हमारे जीवन का सबसे खूबसूरत रिश्ता होता है। जो बात हम अपने माता-पिता-भाई से नहीं कह पाते वो हम अपने बंधु से कह जाते हैं। कुछ लोग दोस्ती को एक अलग ही नरमी और नमी दे जाते हैं। इन्हीं से जीवन सुगंधित और समृद्ध बनता है। कुछ की खुशबू सदा साथ रहती है तो कुछ स्मृति की गलियों को महकाती रहती हैं।

अपने जीवन को जब बाँट कर देखता हूँ तो धनबाद से लेकर भागलपुर और दिल्ली से लेकर मुंबई तक की इस यात्रा में कई दोस्त बने। आज के दिन वे सब याद आये। स्कूल का दोस्त ऑरोविल, कॉलेज का गौरव और यूनिवर्सिटी में वरुण ये सब आज भी मेरे अच्छे दोस्त हैं। दिल्ली में रहते हुए गीतांजलि, प्रीतिलता और शालिनी जैसे दोस्त मिले। शालिनी से तो मैंने बाद में शादी भी की। अब तो शादी को भी दस साल गुज़र गए। एक सुबह दिल्ली छोड़ कर मुंबई चला आया। यहाँ रीतेश, शिखा और संजय जैसे मित्र मिलें। इरशाद भाई से गहरी दोस्ती हुई। निमिषा मिली जिससे जीवन को एक अलग ही रंग मिला। आज मैं अपने सभी दोस्तों के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ। बहुत कम लोग जानते हैं कि मैं स्वभाव से अंतर्मुखी रहा हूँ और कभी-कभी मुझे अपना साथ भी गंवारा नहीं होता। ऐसे में जीवन ने कुछ दोस्त दिए हैं तो यह ऊपरवाले का करम ही तो है। दोस्ती ज़िंदाबाद रहे, ज़िंदगी और दुनिया आबाद रहे आज के दिन इससे ज़्यादा कोई क्या चाहेगा?

Friday, July 24, 2020

दिल बेचारा, एक अधूरी कहानी : हीरेंद्र झा






कल देर रात मैंने सुशांत सिंह राजपूत की फ़िल्म #दिलबेचारा देखी। यह फ़िल्म कल ही हॉटस्टार पर रिलीज़ हुई है। ज़ाहिर है यह सुशांत की आख़िरी फ़िल्म है। अब वो बड़े पर्दे पर कभी नहीं नज़र आयेंगे। अब सवाल है कि यह फ़िल्म कैसी है? एक दर्शक के नाते फ़िल्म देखते हुए आप कई बार भावुक हो जाते हैं। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि हमें मालूम है सुशांत अब इस दुनिया में नहीं हैं। अगर वे ज़िंदा होते तो फ़िल्म हम एक अलग नज़रिए से देख पाते। स्क्रीनपले के लिहाज़ से फ़िल्म का सेटअप बिल्कुल परफेक्ट है। कहानी हम जानते थे क्योंकि यह एक हॉलीवुड फ़िल्म की रिमेक है। डायलॉग लिखने वाले को लगता है कि ज़्यादा फ़ीस नहीं दी गयी होगी। संवाद और भी अच्छे हो सकते थे। फ़िल्म के संगीत में एक आकर्षण ज़रूर है और गाने के बोल भी कहीं न कहीं आपके मन को छू लेते हैं। सिनेमेटोग्राफी यानी कैमरे का काम बहुत खूबसूरत है। जमशेदपुर से लेकर पेरिस को जिस तरह से दर्शाया गया है, अद्भुत है। अभिनय की बात करें तो सुशांत सिंह राजपूत का परफॉर्मेंस काफ़ी दमदार है। सैफ़ अली ख़ान थोड़ी देर को ही नज़र आये लेकिन, फ़िल्म का जो इकलौता संदेश है वो उन्हीं के संवाद से जाना जा सकता है। डायरेक्शन की बात नहीं करूंगा। उनके लिए बस 'सेरी' ही कह सकता हूँ। कुछ कमियां भी हैं, उनकी बात जानकार लोग करेंगे। बचपन से हम सब यही तो सुनते आए हैं- 'एक था राजा, एक थी रानी.. दोनों मर गए ख़त्म कहानी।' लेकिन, मरने से पहले जी लेने की बात इशारे में ही सही #दिलबेचारा ने बेहद ही ख़ूबसूरती से बताने की कोशिश की है। कई मामले में यह एक अधूरी सी प्रेम कहानी है। ठीक वैसे ही जैसे सुशांत सिंह राजपूत का सफ़र अधूरा ही रह गया। उनके चाहने वालों के लिए यह फ़िल्म एक सौगात की तरह है। 

मेरी रेटिंग 5 में से 3 स्टार। अलविदा सुशांत सिंह राजपूत!


Saturday, July 04, 2020

काफ़्का के बारे में

लौटना

चालीस की उम्र में फांज काफ़्का; जिनकी शादी नहीं हुई थी और न ही कोई संतान थी; एक बार बर्लिन के एक पार्क में टहल रहे थे। वहाँ उन्हें एक बच्ची मिली जो अपनी प्यारी गुड़िया के खो जाने पर रो रही थी। बच्ची के साथ काफ़्का ने ने भी उस गुड़िया को खोजने की कोशिश की, लेकिन वह बेकार हुई। काफ़्का ने कहा कि अगले दिन हम दोनों यहीं मिलेंगे और गुड़िया को फिर से खोजेंगे।

अगले दिन जब बहुत खोजने पर भी गुड़िया उन्हें नहीं मिली तो काफ़्का ने बच्ची को एक चिट्ठी थमाई जो उस गुड़िया ने "लिखी" थी। उसमें लिखा था, "प्लीज तुम मत रोना, मैं एक ऐसी ट्रिप पर निकली हूँ जिसमें मुझे इस दुनिया को देखना है। मैं अपने रोमांचकारी अनुभवों के बारे में तुम्हें लिखती रहूँगी।"

इस तरह एक कहानी शुरू हो गई जो काफ़्का की ज़िंदगी के अंत तक लिखी जाती रही।

अपनी मुलाकातों के दौरान काफ़्का रोमांचक संवादों से भरी हुई उन चिट्ठियों को बहुत ध्यान से पढ़ते जो अब बच्ची को भी खूब भाने लगी थीं।

आख़िर एक दिन काफ़्का ने लगभग वैसी ही गुड़िया लाकर उसे दिया जैसी कि बच्ची ने खुद खरीदी थी। वह गुड़िया जो अपनी "ट्रिप" के बाद बर्लिन लौट आयी थी। "यह कहीं से भी मेरी अपनी गुड़िया जैसी नहीं लगती है", बच्ची ने कहा। 

काफ़्का ने उसके हाथ में एक और चिट्ठी पकड़ाई जिसमें लिखा था, "मेरी यात्राओं ने मुझे बदल दिया है। मैं अब पहले जैसी नहीं रही।" छोटी बच्ची ने नई गुड़िया को सीने से लगा लिया और ख़ुशी-ख़ुशी अपने घर ले आई।

एक साल बाद काफ़्का की मृत्यु हो गयी।

कई साल बाद जब बच्ची बड़ी हो गयी तो उसे गुड़िया के अंदर रखी हुई एक चिट्ठी मिली। एक छोटी-सी चिट्ठी, जिसपर काफ़्का के हस्ताक्षर थे और लिखा था, "वैसी हर चीज जिसे तुम प्यार करते हो शायद कभी खो जाएगी, लेकिन अंत में वही प्यार दूसरे रूप में लौटकर तुम्हारे पास आ जाएगा।"

(काफ़्का के जन्मदिन पर प्रस्तुत एक पोस्ट का Pankaj Bose द्वारा किया गया अनुवाद)

Monday, June 15, 2020

फेसबुक पर ज्ञान की बारिश, बेशर्मों ने कहा तैरना चाहिए था

फेसबुक पर हो रही ज्ञान की बारिश, बेशर्मों ने कहा तैरना चाहिए था

मुंबई, हीरेंद्र झा। अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत से देश सदमे में है और इस सदमे की झलक कम से कम सोशल मीडिया पर काफी मात्रा में दिख रही है। प्रथम साक्ष्य की माने तो सुशांत ने आत्महत्या कर ली है। रविवार सुबह उनका पार्थिव शरीर उनके बांद्रा वाले घर के बेडरूम में झूलता हुआ मिला। ख़बर आते ही इस पर अलग अलग तरह की प्रतिक्रिया आने लगी। लेकिन, सोशल मीडिया इस मुद्दे पर शोकाकुल तो दिखा लेकिन वो प्रवचन मोड में नज़र आया। किसी ने कहा कि उसे किसी दोस्त से फोन पर बात करनी चाहिए थी। किसी ने लिखा जीवन में कुछ रिश्ते ऐसे होने चाहिए जिससे आप जब चाहो अपना दर्द साझा कर सको। किसी ने यहाँ तक कह दिया कि आप परेशान हैं तो सीधे मुझे कॉल कीजिये, हम सुनेंगे आपको। कोई सुशांत को कायर कह रहा, कोई भगोड़ा। ज़ाहिर है काम तो सुशांत ने गलत ही किया है पर इसे बहुत गहराई से समझने की ज़रूरत है। मनोवैज्ञानिकों की माने तो इंसान कई बार इस कदर अवसाद में डूब जाता है कि किसी भी नाज़ुक मौके पर वो आत्महत्या कर सकता है। जानकार कहते हैं कि इस भावावेश भरे लम्हें में अगर कोई कांधा आपको मिल जाये तो आप इससे बच सकते हैं। जो बिना आपको जज किये, आपके साथ मजबूती से खड़ा हो। यह इतना भी आसान नहीं। ज्ञान देना आसान है, पर जिस पर बीतती है वही जानता है। आज परिवार तक में जिस तरह से रिश्ते टूटने लगे हैं ऐसे में बाहरी दुनिया में कोई हमराज़ मिले यह आसान नहीं। हर इंसान का परिवेश, उसकी सोच और ज़रूरतें अलग होती हैं। उसके इमोशन नितांत ही निजी होते हैं। कई बार झिझक में भी वो किसी से अपना दर्द शेयर नहीं कर पाता। करता भी है तो कई बार उसका मज़ाक बनाकर, कमजोर साबित कर दर्द पर मिट्टी डाल दी जाती है। ऐसा हमेशा से होता आया है। कहते हैं न कि एक विजेता के सौ बाप होते हैं, पर एक हारा हुआ व्यक्ति अनाथ होता है। हमें अपने आस पास की दुनिया के लिए कहीं ज़्यादा संवेदनशील होने की ज़रूरत है। कितने ही दर्द और भावनाओं की नियति है कि वो अनसुनी ही रह जाती हैं। इन्हें सुनने के लिए आत्मिक रूप से आपका जगा हुआ होना पहली शर्त है। फिर दिखावे की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। लोग खुल कर आपसे अपनी बात शेयर कर पायेंगे। जो लोग आत्महत्या की सोच रहे हैं उनसे बस यही कहना चाहूँगा कि जीवन अनमोल है। बकौल ज़ौक़ तो वे घबरा के कहते हैं कि मर जायेंगे, मर कर भी चैन न मिला तो किधर जायेंगे!"

Sunday, May 31, 2020

अलविदा वाजिद

संगीतकार साजिद-वाजिद की यह जोड़ी आज टूट गयी। वाजिद के निधन की ख़बर से आज मन उदास है। हम जैसे नये लोगों से भी वो बेहद प्यार और सम्मान से मिलते थे। उनकी आत्मा को शांति मिले, यही प्रार्थना।




विदा 2021

साल 2021 को अगर 364 पन्नों की एक किताब मान लूँ तो ज़्यादातर पन्ने ख़ुशगवार, शानदार और अपनों के प्यार से महकते मालूम होते हैं। हिसाब-किताब अगर ...