Monday, March 30, 2020

कोरोना डायरी #CoronaDiary

जीवन का हिसाब स्पष्ट है - खुश रहोगे तो खुशियां मिलेगी और दुखी रहोगे तो दर्द. यह बात समझने में कई बार हमें ज़िंदगी भर का सफर तय करना पड़ सकता है. लेकिन, इसके लिए ज़िंदगी हमें हर कदम पर मौके देती है, इशारे करती है. बस आपको सचेत रहना है और पूरी समग्रता से उन इशारों को समझना होता है.

यह लिखने में भले आसान हो पर इस पर अमल करना उतना सहज नहीं। हर इंसान का अपना अनुभव और दृश्टिकोण होता है. जिसमें तपकर हम किसी चीज़ के प्रति अपना एक नजरिया बनाते हैं. यह नजरिया उधार का तो बिलकुल भी नहीं हो सकता। कबीर ने कहा या बुद्ध ने कहा यही सोचकर कोई बात नहीं मान लेनी चाहिए। जब तक हम स्वयं उस अनुभूति से साक्षात्कार न कर लें दुनिया भर के दर्शन और साहित्य बेमानी हैं.

आप आँखें बंद करके खुद को टटोलिये कि आप इस जीवन से क्या चाहते हैं? अगर आप देख पायें तो आप खुशकिस्मत हैं क्योंकि दस में से नौ लोगों को तो यह बिलकुल भी नहीं मालूम होता कि वो इस जीवन से क्या चाहते हैं. इन दोनों तरह के लोगों को अलग-अलग तरीके से चीज़ों को समझना होगा। पहले वे लोग जो देख पा रहे हैं कि उन्हें इस जीवन से क्या चाहिए, वो बस उन्हीं पर अपना ध्यान केंद्रित रखें. क्योंकि जीवन बहुत ही विराट है- यहाँ थोड़ा-थोड़ा सब कुछ पा लेना भी आसान नहीं। और थोड़ा-थोड़ा पाकर भी आप बेचैन ही रहेंगे। जो भी पाना हो वो सम्पूर्णता के साथ पाना, तभी आप आनंदित हो सकते हैं. अगर आप स्पष्ट हैं कि आप को जीवन से क्या चाहिए तो आप यह समझ लें कि आपको बस उसी पर केंद्रित रहना है. व्यर्थ के प्रयासों में समय न गंवा दें. मान लीजिये कि आपको एक महाकाव्य रचना है तो बस आपका पूरा ध्यान इसी बिंदु पर होना चाहिए। सोते-जागते आप अपने महाकाव्य को साकार होते दिखे। अगर आपको अपने मन में महाकाव्य के पन्ने नज़र आने लगे तो समझो आपने महाकाव्य रच दिया। यह और भी बातों के लिए उतना ही सटीक है.

दूसरी बात कि आपको अभी भी नहीं मालूम कि आपको इस जीवन से क्या चाहिए। तो बेहतर है खुद के साथ ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त गुज़ारे। अपने आप को समझें। ह्रदय की गहराइयों में उत्तर कर खुद को देखें कि ऐसी कौन सी बात है जो आपको मिल जाए तो आप खुश हो जाएंगे। अगर आप ईमानदारी से खुद का मूल्यांकन करें तो इस बात की कोई भी वजह नहीं कि आप निरुत्तर रहे.

और जब एक बार आप समझ गए कि आपको इस जीवन से क्या चाहिए तब आगे का रास्ता स्वतः ही निर्मित होना शुरू हो जाता है. इस शोध के लिए यह 21 दिनों का लॉकडाउन बहुत ही कारगर है. यह मैं अपने अनुभव से कह रहा हूँ. जीवन में एक से ज़्यादा बार ऐसा हुआ है कि मैंने आत्महत्या करने का सोचा है. लेकिन, नहीं अब मैं समझ गया हूँ कि मरने से पहले ज़िंदगी एक बार जी ही लेनी चाहिए। इति शुभम!

हीरेंद्र झा

Thursday, March 26, 2020

#CoronaDiary #Day2

आज का दिन थोड़ा बेहतर गुज़रा और आज मैंने अगले 7 दिनों के लिए अपना रूटीन बना लिया है. उससे पहले आज कुछ काम को लेकर भी कुछ लोगों से बात हुई और इस दौरान यह तय हुआ कि कोरोना के इस लॉक डाउन का लाभ उठाकर कुछ प्रोजेक्ट के काम पूरे कर लिए जायें। संभवतः अब इस दिशा में भी काफी वाट लगने वाला है.

बहरहाल, आज दिन में ओशो के कुछ वीडियो सुने। ग्रेजुएशन के दौरान मैंने ओशो को खूब पढ़ा है और उसका मुझे लाभ  भी हुआ. लेकिन, अरसे से ओशो और उनकी बातें भूला सा था एक बार फिर उन लम्हों को जी रहा हूँ. मैंने अनुभव किया है कि संन्यास मेरा मूल स्वभाव है. इसलिए भी इस राह पर जाने से थोड़ा बचता हूँ. क्योंकि यह बहुत ही आसान है मेरे लिए. और अगर मैं इस राह पर बढ़ चला तो मुझसे जो लोग जुड़े हुए हैं उन्हें परेशानी हो सकती है. इसलिए कहीं न कहीं मन में यह रहता है कि इस संसार में एक संन्यासी की तरह क्यों न रहा जाए? मैं कुछ लिखता भी हूँ तो कई बार उस लिखे में मुझे वो दर्शन और पद्धति महसूस होती है.

जो मेरी अगले 7 दिन की दिनचर्या रहने वाली है. उसकी बात करूँ तो मैंने तय किया है कि अगले 7 दिनों तक मैं लगातार ध्यान की अवस्था में रहूँगा। यानी मेरा पूरा ध्यान मेरी साँस पर टिका होगा। उसके आने और जाने पर. भीतर गहरे तक साँस लूँगा। ज़्यादा से ज़्यादा प्राणवायु मेरे भीतर जाए इसका ख़्याल रखूंगा। साँस के अलावा मैं अगले सात दिनों तक भोजन को लेकर ज़्यादा नहीं सोचने वाला। जितने कम में काम चल जाए बस उतना ही भोजन करूँगा। जीवन के लिए जितना ज़रूरी हो सिर्फ उतना खाऊंगा। जो भी करूँगा एकाग्रचित्त होकर करूँगा। एकाग्रता के लिए सबसे सहज और हितकर मार्ग यही है कि आप अपने साँसों पर ध्यान बनाकर रखें। इसके अलावा कुछ और काम करने पड़े जैसे नहाना, भोजन आदि तो वह भी पूरी एकाग्रता के साथ किया जाए.

इन तीनों बातों के अलावा चौथी बात जिसका मुझे ध्यान रखना है, वो है -मौन. मेरी कोशिश रहेगी कि मैं 24 घटे मन, वचन और विचार से मौन रहूं। कोई आफत ही आ जाए तो दो, चार शब्द बोलकर या कागज़ पर लिख कर काम चल जाए तो यह कर लूँ. यह कठिन है पर इसका अपना ही आनंद है. सिर्फ बोलना ही बंद नहीं करना है बल्कि देखना और सुनना भी न्यूनतम कर देना। ज़्यादातर वक़्त मेरे आँखों पर इस दौरान पट्टी बंधा होगा और मैं पूरी तरह से सिर्फ ध्यान में रहने का प्रयास करूँगा। आखिरी बात यह समय मैं किसी मजबूरी में नहीं करूँगा, बल्कि पूरे आनंद भाव से करने वाला हूँ. मुझे कुछ याद नहीं कि कोरोना की वजह से पूरे देश में बंद की स्तिथि है. मैं घर से बाहर नहीं निकल सकता। कि मैं सबसे दूर यहाँ मुंबई में अकेले हूँ. मुझे बस इतना याद है कि मैं सुख और आनंद में हूँ और इस समय को एक अवसर की तरह देख रहा हूँ. फिर जीवन में मुझे यह सात दिनों का विशेष ध्यान करने का अवसर न मिले तो क्यों न इस समय का लाभ उठा लूँ. कुछ बहुत ज़रूरी कोई फोन आ गया (काम के सिलसिले में) तो उस तरह के फोन मैं ज़रूर उठाऊंगा और कुछ लिखना हुआ तो वो भी करूँगा। लेकिन, अगर ऐसा न हुआ तो वो और भी अच्छा। अपने अनुभव मैं आप सबको ब्लॉग पर बताता रहूँगा।

- हीरेंद्र झा

Wednesday, March 25, 2020

#CoronaDiary Day1

हालांकि मुंबई में शनिवार 21 मार्च से ही कर्फ्यू लग गया था और आज यानी 25 मार्च से तो देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा हो ही चुकी है. कोरोना से बचने का यह सबसे आसान और कारगर उपाय है. ऐसे में पूरा देश इस वक़्त अपने-अपने घरों में है और पूरे २१ दिनों तक उन्हें ऐसे ही रहना है.

घर-परिवार से दूर अकेले मुंबई में अपने एक छोटे से कमरे में हूँ. मैं बिना लाग-लपेट के यह कहना चाहता हूँ कि यह एक बड़ी मुश्किल समय है. मैंने अपने पूरे जीवन में ऐसा समय नहीं देखा। घर-परिवार और अपनों के साथ 21 तो क्या मैं सौ दिन भी बिना किसी परेशानी के घर पर रह सकता हूँ. पर ऐसे अकेले यह मेरे लिए भी एक रहस्य ही होगा जो मैं 21 दिनों तक बचा रह गया.

देश के अलग-अलग हिस्सों से कुछ तस्वीरें आ रही हैं, जिनमें इक्का-दुक्का लोग सड़क पर मास्क पहने घुमते दिख रहे हैं. ज़रूरी सेवा देने वाले जैसे पुलिस, डॉक्टर्स, बैंकर्स और पत्रकार आदि वैसे भी घरों से निकल रहे हैं. यहाँ एक बात मैं जोड़ना चाहूँगा कि मुंबई में मैं जिस सोसायटी में रह रहा हूँ, यहाँ मेन गेट पर ताला लगा दिया गया है और आपातकालीन स्तिथि में ही किसी को बाहर निकलने की इज़ाज़त है. यह नियम बना दिया गया है कि सुबह आठ बजे से लेकर नौ बजे तक मेन गेट खोला जाएगा और आप इसी दौरान अपने खाने-पीने की ज़रूरी चीज़ें लेकर आ सकते हैं. शुक्र है कम से कम यह एक अच्छी बात है.

बहरहाल, खाने-पीने का मैंने कुछ यह सोचा है कि चूड़ा, चना, मूंगफली, चावल-दाल जो सहज और आसानी से बन जाए, उसी में किसी तरह यह दिन बीता देना है. ज़्यादा खाने-पीने के चक्कर में नहीं रहना है. एक वक़्त भी पेट भर कर खा लिया तो अगले दिन तक छुट्टी। तो भोजन को लेकर मैं बहुत ज़्यादा चिंतित नहीं हूँ. मेरी चिंता थोड़ी अलग है.

मन में यह ज़रूर आता है कि जीवन में ऐसा कभी कठिन समय आये तो इंसान को अपने परिवार के साथ होना चाहिए। एकजुट होकर एक दूसरे को सहारा देते हुए हम इस तरह के हालातों से निकल सकते हैं. मेरे साथ वर्तमान में ऐसे हालात हैं कि बुजुर्ग माता-पिता धनबाद में है. उनका पूरा समय घर पर ही बीतता है. मेरी एक दीदी अपने परिवार के साथ वहां है, जो उनका ख़्याल रख रही हैं. बाबूजी रोज़ बिना नागा एक बार कॉल ज़रूर कर लेते हैं और मेरी आवाज़ सुनकर बुलंद हो जाते हैं. पत्नी है जो अपने मायके यानी लखनऊ में रहती है. आठ  साल की प्यारी बिटिया ख़ुशी भी अपनी मम्मी के साथ वहीं रह रही है. मेरे साथ संयोग कुछ ऐसा रहा कि कभी बिटिया के साथ रहने का मौका मुझे नहीं मिला है. वो नानी के घर ही जन्मीं और वहीं देखते-देखते आठ बरस की हो गयी हमारी लाड़ो। उसे फोन पर बात करना पसंद नहीं इसलिए मेरी उससे न के बराबर बातचीत होती है. बीते एक साल में हम चार बार मिले हैं और कुल मिलाकर आठ दस दिन हमने साथ बिताये होंगे। पत्नी का रूटीन कुछ इस तरह का है कि उसके पास बिल्कुल भी फुर्सत नहीं। स्टेट बैंक की नौकरी के बाद जो वक़्त उसे मिलता है उसपर उसकी बीमार माँ और प्यारी बिटिया का अधिकार है. उसकी मम्मी यानी मेरी सास का लीवर काफी हद तक डैमेज हो चुका है और उनकी हालत काफी गंभीर रहती है. कई बार उन्हें इलाज के लिए लखनऊ से लेकर दिल्ली भागना होता है. ऐसे में हम दोनों पति-पत्नी के बीच कई बार सप्ताह भर भी बात नहीं हो पाती। मैं उसे बहुत मिस भी करता हूँ. पर शायद यही नियति है और किसी तरह यहाँ मुंबई में जीने की कोशिश कर रहा हूँ.

सामान्य दिनों में काम में उलझ कर दिन बीत जाया करता है पर ऐसे लॉक डाउन के समय में मेरी बेचैनी का बढ़ना वाजिब ही है. दिन भर घर पर अकेले क्या और कैसे किया जाए, आसान नहीं। न किसी अपने से कोई संवाद ही है और न ही एक पारस्परिक सहयोग वाली बातचीत कि जिसके सहारे आप अपना समय काट सकें। थक-हार कर मेरे पास यही विकल्प है कि - कितने पढूं, फ़िल्में देखूँ और लिखूँ। लिखकर बेचैनी मेरी थोड़ी कम होती रही है.

तो मैंने सोचा क्यों न इस लॉक डाउन में रोज़ अपने ब्लॉग पर #CoronaDiary लिखूं। इसी बहाने अगर मैं ज़िंदा बचा रहा तो आज से दस-बीस साल बाद भी यह समय याद रह जाएगा। तो इस कड़ी में यह दूसरी पोस्ट है. कल भी मैंने कोरोनो पर कुछ लिखा है और आज भूमिका बांधते हुए आप सभी को अपनी मानसिक और व्यावहारिक स्थिति बता दी है.

आज यू tube पर अमोल पालेकर और विद्या सिन्हा की फिल्म 'छोटी सी बात' फिर से देखी। बेहद मासूम सी फिल्म है. उसके बाद संदीप माहेश्वरी के कुछ वीडियो सुनते हुए बर्तन भी धोये। और अब सोचा सोने से पहले यह पोस्ट लिख ही दूँ. वैसे अभी रात के सिर्फ दस ही बजे हैं. कल भी तीन बजे के बाद ही सोया था और आज भी देर होगी ही. देखते हैं यह दिन अपने आखिरी घंटे में कैसा रहता है. अब रफ़ी के गीत सुन रहा हूँ. पूरी प्लानिंग कर ली है कि कल से मेरा रूटीन क्या रहने वाला है. वो सब कल लिखता हूँ. अगर आप यह पोस्ट पढ़ पा रहे हैं तो यही कहूंगा कि घर पर ही रहे, बाहर न निकले. अपना ख़्याल रखें। हाथ धोते रहे. और यह सब किसलिए? देश ही नहीं मानवता के लिए भी. जी! शुक्रिया।

आपका हीरेंद्र

Tuesday, March 24, 2020

#कोरोनाडायरी #Corona #Covid19

मुंबई में अपने कमरे में हूँ। अकेले। शनिवार से ही यहाँ कर्फ़्यू सा माहौल है। ऐसे समय में लगता है कि काश घर, परिवार के साथ होते! बाबूजी से किस्से सुनते, माँ के पैर दबाते या बिटिया संग लुडो खेलते या फिर उसकी मम्मी को कविताएं सुनाते, गीत गाते। पूरे घर की सफाई खुद करते। बर्तन धोते, खाना बनाते। 'बावर्ची' वाला राजेश खन्ना बन जाते 😊 और कभी-कभी दरवाज़े पर खड़े होकर रास्ते से गुज़रने वाले हर व्यक्ति को हाथ जोड़ कर कहते - घर जा भाई, न तो मर जायेगा



हकीकत तो यही है कि मुंबई में हूँ और अकेले हूँ। दुनिया भर की ख़बरों पर नज़र है। कोरोना वायरस से संक्रमित मरीजों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। यही हालात रहे तो स्तिथि बेहद खतरनाक भी हो सकती है। ऐसा कुछ न हो इसके लिए सिर्फ प्रार्थनायें ही की जा सकती हैं। अपने देश में स्वास्थ्य सुविधाओं का ढांचा इतना लचर है कि इस तरह की आपदा के लिए हम बिल्कुल भी तैयार नहीं। फिलहाल जितना हो सके अपने-अपने घरों पर रहिये और हाथ धोते रहिये इस निर्देश का पालन यथासंभव देशवासी कर रहे हैं। सोशल मीडिया पर भी कोरोना को लेकर भावुकता, जागरूकता, सतर्कता और अफ़वाहों का मिलाजुला मॉडल दिख रहा है। ज़्यादातर लोग आशावादी हैं और एक दूसरे को ख़्याल रखने के लिए कह रहे हैं। तमाम बॉलीवुड स्टार्स और सेलिब्रिटी लगातार लाइव आकर जनता को जागरूक करने का काम कर रहे हैं।

अपने घर पर बैठा मैं सबको चुपचाप देख-सुन रहा हूँ। आप सबकी तरह मैं भी अपने परिजनों को लेकर फ़िक्रमंद हूँ और लगातार सबसे बातचीत हो जा रही है। फोन पर माँ-बाबूजी रोज़ बिना नागा हाल-चाल ले लेते हैं। कुछ दोस्त रिश्तेदारों से कई बार लंबी बातचीत भी हो रही है। आख़िर इतनी फुर्सत आसानी से हमारे हिस्से आता भी तो नहीं।

 जब से लॉक-डाउन और कर्फ्यू की ख़बरें आनी शुरू हुई, उससे पहले से ही लोग अपने-अपने घरों में राशन आदि ज़रूरत का सामान जमा करने लगे। उन्होंने जैसे मान ही लिया था कि दुनिया जैसे ख़त्म हो रही है और वो जितना हो सकता है उतना भर कर रख लें। ऐसे देशभक्तों को क्या ही कहा जाए? लेकिन, दूसरी तरफ ऐसे लोग भी दिखे जो आम लोगों को ज़रूरत का सभी सामान उपलब्ध कराने के प्रयास में भी जुट गए हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरबिंद  केजरीवाल के आह्वान पर कई लोगों ने यह जिम्मेदारी ली है कि उनके इलाके में कोई भूखा नहीं रहेगा। यह एक अच्छी पहल है। आज महाराष्ट्र से 12 मरीजों के ठीक होने की ख़बर भी आयी है, यह भी एक सुखद समाचार है।

गौरतलब है कि कोरोना वायरस बुजुर्गों और उन लोगों के लिए ज़्यादा खतरनाक है जिनकी प्रतिरोधक क्षमता कमजोर है। ऐसे में इन लोगों का ध्यान रखने के लिए हम सबको अपना-अपना बचाव करना होगा।

इंसान बहुत जल्दी में है। भागते-भागते आज वो उस मुकाम पर है जहाँ उसने अपने लिए एक ऐसी दुनिया रच ली है जहाँ खड़े होकर आधुनिकता इतराया करती है। लेकिन, इन सबके बीच हम भूल गए हैं कि इस ब्रह्माण्ड में सिर्फ इंसान ही नहीं दूसरे जीव-जंतु भी रहते हैं। प्रकृति एक दिन सबकुछ अपने हिसाब से कर लेती है। उसे संतुलन बनाना आता है। इस बार भागती जा रही मनुष्यता को उसने ठहर कर सोचने पर मजबूर कर दिया है। कि एक पल रुक कर हम सोचें कि क्या हमें हमारे किये की सज़ा मिल रही है?

क्या इस संकट से उबरने के बाद यह दुनिया थोड़ी बदल जायेगी? क्या हम सब एक इंसान के रूप में थोड़े बेहतर हो सकेंगे? अगर इसका जवाब हाँ है तो इसकी शुरुआत अभी से करनी होगी। और वो आप अपना ख़्याल रख कर घर बैठे-बैठे ही कर सकते हैं। 


 #कोरोनाडायरी1  #Corona #Covid19 #India #Humanity #Lockdown

Saturday, March 21, 2020

वो ख़ुदा को आवाज़ लगाती रही #हीरेंद्र







हर बात वो मुझसे छिपाती रही
सुबह आती रही शाम जाती रही
उलझनें ऐसे में क्या सुलझती भला
उसकी आँखें ही जब उलझाती रही
मेरा गीत क़ैद रहा मेरे कंठ में
और ज़िंदगी मुझे गुनगुनाती रही
हम मिलेंगे ज़रूर ये वादा देकर
मेरे सब्र को वो आजमाती रही
हम इंतज़ार में उसके बैठे रहे
वो ख़ुदा को आवाज़ लगाती रही। #हीरेंद्र

Wednesday, March 18, 2020

#कोरोना के साइड इफेक्ट्स

#कोरोना के साइड इफेक्ट्स कुछ ऐसे हैं कि पिछले 8 दिनों से न तो मैंने किसी को छुआ है और न ही किसी ने मुझे ही। हालांकि, यह आसान नहीं।
बहरहाल, इस दौरान मैंने यह अनुभव किया कि 'स्पर्श' मानव जाति की एक बड़ी थाती है, एक बड़ी आश्वस्ति है।
किसी को गले से लगाकर, किसी की हथेली थामकर, किसी की पीठ थपथपाकर, किसी के सिर या कांधे पर हाथ रखते हुए ही मनुष्यता ने इस दुनिया को बचाया हुआ है।
आइये ब्रह्मांड से यह प्रार्थना करें कि हर तरफ शुभ संदेश फैले। इस पोस्ट के साथ मेरी तरफ से आभासी ही सही पर एक जादू की झप्पी स्वीकार करें। आज बस इतना ही। शेष मिलने पर 💐#हीरेंद्र

Saturday, March 14, 2020

पत्रकारिता आपको एक बेहतर इंसान बनाती है: सर्वप्रिया सांगवान



सर्वप्रिया सांगवान देश की उभरती हुई महिला पत्रकारों में से हैं, जिन्होंने बहुत ही कम समय में राष्ट्रीय स्तर पर अपनी एक मजबूत पहचान बना ली है। एनडीटीवी इंडिया में लगभग छह साल काम करने के बाद वर्तमान में बीबीसी हिंदी से जुड़ी हुई हैं। सरोकारी पत्रकारिता को लेकर गंभीर सर्वप्रिया को इसी साल पत्रकारिता का सबसे प्रतिष्ठित रामनाथ गोयनका अवॉर्ड से सम्मानित किया  गया है। सोशल मीडिया पर भी वो बेहद सक्रिय और लोकप्रिय हैं। उनकी यात्रा, करियर आदि विषयों पर आधी आबादी पत्रिका के सहायक संपादक हीरेंद्र झा ने उनसे लंबी बातचीत की। प्रस्तुत हैं बातचीत के कुछ अंश-


हीरेंद्र: जब आप अपने बचपन को याद करती हैं तो पहली चीज़ क्या याद आती है आपको

सर्वप्रिया: बचपन के दिनों को जब मैं याद करती हूँ तो मुझे एक चीज़ जो साफ़ तौर से याद है कि मैं खूब डांस करती थी। तीन साल की उम्र से ही मैं स्टेज पर परफॉर्म करने लगी थी। मुझे कई अवॉर्ड्स और ट्रॉफियां मिलीं। मुझे राजीव गाँधी स्कॉलरशिप भी मिला था 1994 में। मैं हरियाणा से तीन बार चैंपियन रही। तो मेरा बचपन ज़्यादातर डांस करते और अवार्ड्स लेते हुए ही बीता है।

हीरेंद्र: घर में कैसा माहौल था?

सर्वप्रिया: जब मैंने होश संभाला तब मैं सोनीपत में अपने नाना-नानी के पास ही रहती थी। मम्मी-पापा अपने जीवन की संघर्षों में व्यस्त थे। वो रोहतक में रहते थे। फिर मेरा भाई भी आ गया और हम दोनों भाई बहन नाना नानी के यहाँ ही रहे। लगभग 7 साल की उम्र तक मैं नाना-नानी के साथ ही रही। नाना ने ही मुझे स्टेज और डांस जैसी चीज़ों के लिए प्रोत्साहित किया। मम्मी महीने में एक दो बार ही आती थीं। सब अच्छा ही था, जितना मुझे याद है।

हीरेंद्र: पढ़ाई-लिखाई कहाँ हुई आपकी?

सर्वप्रिया: जब मैं रोहतक आयी तब मैं ज्योति प्रकाश स्कूल में पढ़ती थी। वहां मैं छठी क्लास तक पढ़ी। फिर मैं यूनिवर्सिटी कैम्पस स्कूल में चली गयी तो बारहवीं तक वहां रही। मैं एक एवरेज स्टूडेंट रही हूँ। आप कह सकते हैं मैं गणित से थोड़ा दूर भागती थी। लेकिन, मुझे यह अब समझ आ गया है कि मैं खराब स्टूडेंट नहीं थी बल्कि मुझे अच्छे टीचर्स नहीं मिले मैथ्स के। स्कूलिंग के दौरान पढ़ाई- लिखाई के अलावा तमाम सांस्कृतिक गतिविधियों में भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती थी। डांस के अलावा सिंगिंग और ड्रॉइंग में भी रूचि रखती थी। खेल कूद में भी लगातार भाग लेती रहती थी।

हीरेंद्र: डेंटिस्ट फिर कैसे बनी?

सर्वप्रिया: मैंने  ग्यारहवीं क्लास में बॉयोलॉजी लिया था तब इतना नहीं क्लियर था कि मुझे डॉक्टर ही बनना था। लेकिन, बॉयो के स्टूडेंट के लिए तब यही एक विकल्प होता था। मुझे साइंस में रूचि भी थी। फिर पैरेंट्स ने जो दिशा दिखाई उसी तरह मैं आगे बढ़ी। पहले प्री मेडिकल टेस्ट क्लियर किया फिर बीडीएस (बैचलर ऑफ़ डेंटल सर्जरी) में दाखिला हो गया। वहां भी बहुत मज़ा आया। उसके बाद सरकारी अस्पताल में काम करने के दौरान यह महसूस हुआ कि सरकारी जॉब ही करनी है क्योंकि यहाँ एक मौका होता है कि आप किसी गाँव में पोस्टेड होते हैं जहाँ वास्तव में आपकी ज़रूरत होती है। ये नहीं कि आप खुद ही कोई क्लिनिक खोल लें और इसे बिजनेस की तरह करने लगे।

हीरेंद्र: पत्रकारिता से कैसे रिश्ता बना आपका?

सर्वप्रिया: मेरे पापा श्री सर्व दमन सांगवान प्रिंट पत्रकारिता में लंबे समय तक जुड़े रहे। जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा, पंजाब केसरी जैसे संस्थानों में काम किया। साल 2002 के बाद उन्होंने अपना फील्ड बदला। लेकिन, उनको देखते हुए यह मुझे कभी नहीं लगा कि मुझे भी पत्रकारिता करनी है। बहरहाल, 2011 में जब मेरा बीडीएस पूरा होने वाला था उसी दौरान पापा ने मुझे एनडीटीवी मीडिया संस्थान का एक विज्ञापन दिखाया, मॉस मीडिया डिप्लोमा कोर्स के लिए तो फिर यह एक टर्निंग पॉइंट रहा और मैं एनडीटीवी आ गयी। फिर पढ़ाई के बाद वहीं जॉब भी मिल गयी।

 


हीरेंद्र: एनडीटीवी में आप प्राइमटाइम रिसर्च टीम में रहीं, रवीश के साथ काम करते हुए कैसा अनुभव रहा?

सर्वप्रिया: छह साल एनडीटीवी में रवीश के साथ काम करने का मौका मिला और मुझे लगता है मैंने उनसे पत्रकारिता से ज़्यादा एथिक्स सीखे हैं। इंसानियत ज़्यादा सीखी है। मैंने अनुभव किया कि वो अपने आस-पास के लोगों को काफी बढ़ावा देते हैं, उनमें किसी भी तरह की असुरक्षा की भावना नहीं है। वो मीडिया एथिक्स काफी फॉलो करते हैं। तो स्वाभाविक तौर पर असर तो पड़ता है। मैं एनडीटीवी आने से पहले बिल्कुल अलग तरह की इंसान थी और अभी भी मुझे लगता है कि अगर मैं पत्रकारिता में नहीं आती तो मैं काफी अलग होती। आज मुझे लगता है कि मैं सच्चाई के ज़्यादा करीब हूँ और चीज़ों को ज़्यादा बेहतर तरीके से देख-समझ पाती हूँ और ज़्यादा सेंसिटिव हुई हूँ। एनडीटीवी में काफी अच्छा माहौल रहा और वहां लड़कियों की तादाद ज़्यादा थी और वहाँ काम करते हुए हमें ऐसा लगता है कि संस्थान को हमारी ज़रूरत है। मैं कई मुद्दों पर अपने सीनियर्स से बहस भी करती थी और कभी किसी ने रोका-टोका नहीं। हमेशा प्रोत्साहित ही किया।

हीरेंद्र: तो उसी दौरान आपने फिर लॉ की पढ़ाई भी की?

सर्वप्रिया: लॉ में मुझे हमेशा से एक दिलचस्पी रही है। और मैं समझती हूँ एक पत्रकार के लिए लॉ और इकोनॉमिक्स का ज्ञान बहुत ज़रूरी है। फ्यूचर भी इसी का है। मुझे लगा लॉ मेरे पत्रकारिता के करियर में भी काफी सहायक साबित होगा इसलिए मैंने उसकी भी पढ़ाई कर ली।

हीरेंद्र: एनडीटीवी के बाद बीबीसी?

सर्वप्रिया: जी मैं सितंबर 2017 में बीबीसी से जुड़ी।

हीरेंद्र: एंकरिंग, रिपोर्टिंग के साथ इंटरव्यू भी करती हैं आप, सबसे ज़्यादा मज़ा किसमें आता है आपको?

सर्वप्रिया: देखिये यह सब मेरे काम का हिस्सा है। मुझे इन सब चीज़ों में एक सा सुख मिलता है। मैं इन्हें अलग करके नहीं देख पाती। मैं समझती हूँ कि मैं जो भी करूँ पूरी ईमानदारी से करूँ।

हीरेंद्र: रामनाथ गोयनका अवॉर्ड आपको किस स्टोरी पर मिला और इस अवॉर्ड के बाद कितनी बदली आपकी ज़िंदगी?

सर्वप्रिया: जादूगोड़ा में यूरेनियम माइनिंग होती है और 1969 से यह लगातार जारी है।  हुआ ये कि उसके बाद से वहां लोगों में जेनेटिक प्रॉब्लम होने लगी ख़ास कर बच्चों में। रेडिएशन की वजह से कैंसर जैसी बीमारियों के अलावा आम लोगों में कई तरह की स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं देखी गयीं। इस पर पहले भी स्टोरी होती रही हैं। लेकिन, कुछ ख़ास हो नहीं पाया। क्योंकि एटोमिक इनर्जी का विभाग सीधे पीएमओ के अधीन आता है और कोई इसकी परवाह नहीं करता। तो हमने भी इस पर स्टोरी की और उसी स्टोरी पर हमें यह अवॉर्ड मिला और अभी तो सिर्फ एक महीना ही हुआ है और न ही मेरी ज़िंदगी बदली है और न ही उन लोगों की  जिनके लिए मैंने यह स्टोरी की। लेकिन, इतना है कि आपको एक मोटिवेशन तो मिलता ही है कि अच्छे काम की जगह है आज भी।

 

हीरेंद्र: नयी लड़कियों के लिए क्या संदेश देंगी आप?

सर्वप्रिया: अगर आप अपने आप को एक बेहतर इंसान बनाना चाहती  हैं तो आपको मीडिया में ज़रूर आना चाहिए। ऐसा कहा जाता है कि मीडिया लड़कियों के लिए सुरक्षित नहीं है तो मैं कहना चाहूँगी कि सेफ़ तो आप कहीं भी नहीं हैं। 





साभार: आधी आबादी, मार्च अंक

#SarvpriyaSangwan #RamnathgoenkaAward #BBC #NDTV #HirendraJha

विदा 2021

साल 2021 को अगर 364 पन्नों की एक किताब मान लूँ तो ज़्यादातर पन्ने ख़ुशगवार, शानदार और अपनों के प्यार से महकते मालूम होते हैं। हिसाब-किताब अगर ...