बदलते हुए हर लम्हे के साथ दुनिया बदल जाती है। लेकिन, इन सबके बीच आधी आबादी के हालात न जाने कब बदलेंगे?
हीरेंद्र झा
लम्हा-लम्हा, टुकड़ा-टुकड़ा कर रीत गया, एक और साल बीत गया। बदलते हुए हर लम्हे के साथ दुनिया बदल जाती है। लेकिन, इन सबके बीच आधी आबादी के हालात न जाने कब बदलेंगे? 2015 शुरू हो रहा है और ये सवाल जस का तस बना हुआ है। हम लड़ते हैं, मर्दों की बनायी इस दुनिया में अपने लिए एक रास्ता तलाशते हैं, अपनी पहचान बनाते हैं, तमाम मुश्किलों को पार कर एक मुकाम पाते हैं, डॉक्टर
बनते हैं और एक दिन अस्पताल जाते हुए कोई सिरफिरा हमारे चेहरे पर एसिड फेंक देता है। एक पल में मेरा अस्तित्व कांप जाता है और मुझे याद दिला दिया जाता है कि मैं एक औरत हूं, एक निर्बल, असहाय औरत। ये कहानी पिछले दिनों राजधानी दिल्ली में एसिड अटैक की शिकार सिर्फ एक महिला डाॅक्टर की नहीं है, ये हम सबकी कहानी है। तेजाब हमले की पीडि़ता के दर्द को शब्दों में नहीं बांधा जा सकता, इसकी तो बस कल्पना ही की जा सकती है। आज मानो एसिड अटैक एक ट्रेंड सा बन गया है। अखबार रंग जाते हैं ऐसी खबरों से और न जाने कितनी मासूम लड़कियों की जिंदगी बदरंग हो जाती है। प्रधानमंत्री से गृहमंत्री तक एसिड हमले की निंदा कर रहे हैं और वहीं जब एसिड हमले की शिकार हुई लड़कियां अपने अधिकार के लिए जंतर-मंतर पर जुटती हैं तो उन पर लाठियां भी बरसाई जाती हैं। मीडिया में बात उठने पर लग जाते हैं सब लीपापोती करने में लेकिन समस्या का समाधान करने की पहल कोई नहीं करता।
हाल ही में जब एक प्राइबेट कंपनी के कैब में एक लड़की के साथ रेप हुआ तो आनन-फानन में फिर सबको महिला सुरक्षा की चिंता सताने लगी। आखिर क्यों इस विषय पर तभी चर्चा होती है जब कहीं कोई हादसा होता है? कुछ दिन बहस चलती है फिर ये मुद्ये कहीं हाशिये पर ढकेल दिए जाते हैं, जब तक कि दुबारा कहीं कोई घटना न हो जाए इस पर बात नहीं होती! ये विडंबना नहीं तो और क्या है?
सारी दुनिया से स्त्री के रूह तक को लहुलुहान कर देने की खबरों की जैसे बाढ़ आ गई है। कुख्यात आतंकवादी संगठन आईएसआईएस ने तो पिछले दिनों 150 महिलाओं को सिर्फ इसलिए काट दिया क्योंकि उन्होंने इस संगठन के लड़ाकों से शादी करने से इंकार कर दिया था।
हम कुछ कर नहीं सकते तो लड़कियों को ही कटघरे में खड़ा करने लगते हैं। ज्यादातर अपराधों के लिए बड़ी ही आसानी से लड़कियों के पहनावे पर सारा ठीकरा फोड़ दिया जाता है तो कई बार उसके खुल कर हंसने तक की आदत से उसके चरित्र पर सवाल उठा दिया जाता है। यह सब तो एक बानगी भर है, सच्चाई और भी भयावह है। घरों के दहलीज से लेकर गली, मोहल्ले, बाजार तक एक स्त्री डर के साये में जी रही है। एक स्त्री के आंचल में हमेशा प्रेम, करूणा और सहानुभूति बंधी होती है। लेकिन, जब कोई उसी आंचल को तार-तार करने लगे तो जरा सोचिये कब तक बची रह सकेगी ये दुनिया?
किसी को तो आगे आकर मशाल थामना होगा। साहित्य, सिनेमा, पत्रकारिता, राजनीति सबको निर्णायक भूमिका निभानी होगी और उससे पहले हमें खुद से ही शुरूआत करनी होगी। अपने-अपने स्तर पर हर इंसान ये ठान ले कि अब से हम महिलाओं पर कोई हिंसा और अत्याचार नहीं करेंगे तो पलक झपकते ही ढेरों राहें आसान बन सकती हंै। निराशा और अवसाद के क्षणों में जब हर तरफ मुश्किलें, डर और चुनौतियां मुंह बाए खड़ी हैं इन सबके बीच एक उम्मीद की किरण भी दिखती है। आज लड़कियां तमाम आशंकाओं के बावजूद घर से निकल रही हैं, खुद को अभिव्यक्त कर रही हैं और ताल ठोंक
कर हर मैदान में लोहा ले रही हैं। बस जरूरत इतनी भर है कि उनके पंखों को न काटा जाए, उनके अरमानों को न कुचला जाए, उसनके अस्तित्व को न रौंदा जाए तब कहीं जाकर वो सही अर्थों में कह सकेगी हैप्पी न्यू इयर!हीरेंद्र झा