सिनेमा मतलब ग्लैमर.
ग्लैमर मतलब लोकप्रियता. और
लोकप्रियता कहीं न
कहीं राजनीति की
पहली शर्त है!
आज हम कुछ
ऐसे फ़िल्मी कलाकारों
की बात करेंगे
जो अभिनेता से
नेता बने! कुछ
सफल भी हुए
तो कुछ को
ये बदलाव भाया
नहीं! कहीं न
कहीं सिनेमा का
इतिहास जितना पुराना है
उतना ही पुराना
है सिनेमाई लोगों का राजनीति
में आने का
इतिहास.
यहाँ बात हम
उन नेताओं की
करेंगे जिन्होंने चुनाव लड़ा
क्योंकि अगर सबका
ज़िक्र किया जाए
तो फिर
यह लेख सिर्फ
नामों से ही
भर जाएगा! देविका
रानी, पृथ्वी राजकपूर,
लता मंगेशकर से
लेकर आज रेखा
तक राज्य सभा
सदस्य रहे हैं
इसलिए हम आपकी
सुविधा के लिए
राज्यसभा में मनोनीत
सदस्यों की चर्चा
नहीं कर रहे!
राजनीति
की असली चुनौती
है इलेक्शन, जहाँ
आपको एक तय
संख्या चाहिए होता है
सरकार बनाने के
लिए! ऐसे में
चुनावी मैदान में जीत
की अहमियत बहुत
ही बढ़ जाती
है! सभी पार्टियां
इस मौके में
रहती हैंकि उन्हें
कोई ऐसा प्रत्याशी
मिले जो लोकप्रिय
हो, जिसको छवि
समाज में अच्छी
हो और ऐसे
में ज़ाहिर तौर
पर राजनीतिक दलों
की नज़र अलग-अलग फील्ड
के कामयाब लोगों
पर रहती है.
अपने देश में
सबसे ज्यादा क्रेज
अगर किसी चीज़
का है तो
वो है सिनेमा.
इसलिए भी राजनीति
में सिनेमाई लोगों
की एंट्री बाकी
प्रोफेशन की तुलना
में सुलभ है!
फिल्मी सितारों की लोकप्रियता
को भुनाने के
लिए राजनीतिक पार्टियां
कभी उन्हें चुनाव
मैदान में उतारती
हैं तो कभी
स्टार प्रचारक के
रूप में. राजनीति
का अनुभव न
होने के बावजूद
इन स्टार्स को
आसानी से टिकट
मिल जाता है,
क्योंकि राजनीतिक पार्टियों का
मुख्य मकसद स़िर्फ
इनके सहारे चुनाव
जीतना होता है.
बॉलीवुड
कलाकारों की लोकप्रियता
को भुनाने की
शुरुआत देश के
पहले प्रधानमंत्री जवाहर
लाल नेहरू ने
की. पार्टी की
जीत के लिए
स्टार छवि को
भुनाने से उन्हें
कोई परहेज नहीं
था. 1962 के आम
चुनाव में बलरामपुर
संसदीय क्षेत्र से खड़े
थे लोकप्रिय राजनेता
अटल बिहारी वाजपेयी
और उनके अपोजिट
एक बेहद आम
महिला थी दिल्ली
की सुभद्रा जोशी.
अटल जी की
लोकप्रियता से नेहरू
भी वाकिफ थे.
तब उन्होंने अटल
बिहारी बाजपेयी को मात
देने के लिए
उस समय के
बड़े स्टार बलराज
साहनी की मदद
ली. बलराज साहनी
के जादू के
आगे आख़िर अटल
बिहारी वाजपेयी हार गए. इसके
बाद तो सभी
पार्टियों में स्टार्स
छवी को भुनाने
का ट्रेंड चल
निकला. जहां स्टार्स
रिटायरमेंट के बाद
विकल्प के तौर
पर राजनीति में
आने लगे, वहीं
राजनीतिक पार्टियों को भी
उनकी बदौलत जीत
की उम्मीद नजर
आने लगी.
चुनावी सभाओं में राजनीतिक
पार्टियों का एजेंडा
और उनके वायदे
लोग कम देखते
हैं और अपने
प्रिय कलाकार की
एक झलक देख
लेने के लिए
हुजूम उमड़ पड़ता
है. भीड़ इकट्ठी
करने के लिए
राजनीतिक पार्टियां लोकप्रिय कलाकारों
को अपने साथ
जोड़ने की होड़
में लगी रहती
हैं. वहीं फिल्म
कलाकारों को राजनीति
में आने के
अलग फ़ायदे नज़र
आते हैं. अपने
जमाने में लोगों
के दिलों पर
राज करने वाले
फिल्म स्टार्स नर्गिस,
सुनील दत्त, अमिताभ,
रेखा, शबाना आजमी,
हेमा मालिनी, विनोद
खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा जैसे
कई कलाकारों ने
राजनीति में किस्मत
आजमाई. जाने-माने
फिल्म कलाकार और
राजनेता शत्रुघ्न सिन्हा फिल्म
कलाकरों के राजनीति
में आने की
वजह मानते हैं
कि वे लोकप्रिय
होने के साथ
ही आर्थिक रुप
से मज़बूत भी
हैं, जिससे पार्टी
पर ज़्यादा दबाव
नहीं रहता. इसके
अलावा, फ़िल्म स्टार्स राजनीति
में राजकीय सम्मान
पाने की लालसा
से आते हैं,
जबकि राजनीतिक पार्टियां
उनके ज़रिए ज़्यादा
से ज़्यादा लोगों
तक पहुंचना चाहती
हैं. दोनों ही
एक-दूसरे की
ज़रुरत को पूरी
करते हैं.
हालांकि
अधिकतर स्टार्स को सियासी
दुनिया रास नहीं
आती. भारतीय जनता
पार्टी से सांसद
रह चुके अभिनेता
धर्मेंद्र कहते हैं
कि फ़िल्म स्टार्स
अगर राजनीति से
दूर ही रहें
तो अच्छा है.
उनकी राय में
अभिनेता को अभिनय
तक ही रहना
चाहिए और राजनीति
में नहीं जाना
चाहिए. हालांकि उन्हीं के
बेटे सन्नी अब
बीजेपी में शामिल
हो रहे हैं.
हम आपको बताते
हैं कुछ ऐसे
ही कलाकरों के
बारे में जिन्होंने
बॉलीवुड में करियर
ख़त्म होने के
बाद राजनीति की
राह पकड़ी, लेकिन
एक राजनेता के
रूप में वह
कितने सफल हुए..
सुनील दत्त ने
कई बेहतरीन फिल्में
की. अभिनेत्री नर्गिस
से विवाह कर
हिंदू-मुस्लिम एकता
की मिशाल कायम
की. उनकी लोकप्रियता
को देखते हुए
कांगे्रस पार्टी ने उन्हें
टिकट दी. उन्होंने
1984 में कांग्रेस पार्टी के
टिकट पर मुंबई
उत्तर पश्चिम
लोकसभा सीट से
चुनाव जीता और
सांसद बने. वे
यहां से लगातार
पांच बार चुने
गए. उनकी गिनती
प्रभावशाली नेताओं में होती
थी. मृत्यु के
बाद उनकी बेटी
प्रिया दत्त उनकी
विरासत संभाल रही हैं.
वहीं नर्गिस ने फिल्मों
को अलविदा कहा
और सामाजिक कार्यों
में जुट गईं.
पति सुनील दत्त
के साथ अजंता
आर्ट्स कल्चरल ट्रूप की
स्थापना भी की.
यह दल सीमाओं
पर जाकर जवानों
के मनोरंजन के
लिए स्टेज शो
करता था. नर्गिस
को उनके योगदान
के लिए पद्मश्री
सहित कई प्रतिष्ठित
पुरस्कार मिले. उनके योगदान
और लोकप्रियता को
देखते हुए उन्हें
राज्यसभा के लिए
नामित किया गया.
अमिताभ बच्चन-जया बच्चन
: राजीव गांधी के कहने
पर अमिताभ ने
राजनीति में क़दम
रखा था. अभिनय
से कुछ दिनों
का बे्रक लेकर
उन्होंने अपने शहर
इलाहाबाद से चुनाव
लड़ा. उनके सामने
एक बड़ा नाम
था एच.एन.
बहुगुणा. अमिताभ की लोकप्रियता
काम आई और
उन्होंने बहुगुणा को भारी
अंतर से हराया.
सुपरस्टार अमिताभ राजनीति में
कुछ ख़ास नहीं
कर पाए और
उनके दामन पर
दाग़ लगे सो
अलग. इस छोटे
से सफ़र में
बोफोर्स कांड में
उनके भाई अजिताभ
का नाम भी
आया. वह जल्द
ही समझ गए
कि नेतागिरी उनके
लिए नहीं है
और उन्होंने राजनीति
से विदा लेने
में ही भलाई
समझी. हालांकि सपा
से उनकी नजदीकियां
थीं. अमर सिंह
उनके अच्छे मित्र
थे और मददगार
भी. अमर सिंह
के कहने पर
ही जया ने
समाजवादी पार्टी ज्वाइन की.
धर्मेंद्र-हेमा मालिनी
: फिल्मों में अभिनय
के अलावा धर्मेंद्र
और हेमा मालिनी
ने राजनीति में
भी किस्मत आजमाई.
वर्ष 2004 में धर्मेंद्र
और हेमा दोनों
भाजपा में शामिल
हुए. भाजपा के
टिकट पर धर्मेंद्र
ने राजस्थान के
बीकानेर निर्वाचन क्षेत्र से
लोकसभा का चुनाव
जीता, लेकिन धर्मेंद्र
राजनीति में सक्रिय
नहीं रहे. संसद
के किसी भी
सत्र में वह
शामिल नहीं होते
थे. इससे उन्हें
कई तरह के
आरोपों का सामना
भी करना पड़ा.
गोविंदा : गोविंदा कांगे्रस
के टिकट पर
उत्तरी मुंबई से वर्ष
2004 में सांसद चुने गए
थे. बॉलीवुड में
कामयाबी के बाद
उन्होंने पांच साल
का ब्रेक लिया
और राजनीति में
आए, पर बाद
में उन्होंने कहा
कि यह फैसला
उनके जीवन का
सबसे ख़राब ़फैसला
था. गोविंदा ने
कहा कि उनके
लिए यह वाकई
चुनौतीपूर्ण था कि
वह करिश्मा कपूर
और बॉलीवुड की
हॉट हसीनाओं के
जगह नेताओं के
साथ काम करना.
और तो और
वह यह भी
कहते हैं कि
राजनीति में रहते
उनका वजन ब़ढकर
108 किलोग्राम हो गया
था और जब
उन्होंने राजनीति छो़डने का
फैसला किया तो
वजन घटाना उनके
लिए मुश्किल हो
रहा था. वह
यह भी मानते
हैं कि राजनीतिक
बैकग्राउंड के बिना
यहां रहना काफ़ी
मुश्किल है, पर
वह खुशनसीब मानते
हैं ख़ुद को
कि बिना उनके
दामन पर कोई
दाग़ लगे उन्होंने
राजनीति से विदाई
ले ली.
जया प्रदा : जयाप्रदा को
1994 में उनके पूर्व
साथी अभिनेता एन.टी. रामराव
ने तेलुगू देशम
पार्टी में लाए,
पर बाद में
उन्होंने एन.टी.
रामराव से नाता
तोड़ लिया और
चंद्रबाबू नायडू गुट में
शामिल हो गईं.
1996 में उन्हें आंध्र प्रदेश
का प्रतिनिधित्व करने
के लिए राज्यसभा
में मनोनीत किया
गया. पार्टी प्रमुख
चंद्रबाबू नायडू के साथ
मतभेदों के कारण,
उन्होंने तेदेपा को छोड़
दिया और समाजवादी
पार्टी में शामिल
हो गईं. 2004 के
आम चुनावों के
दौरान रामपुर संसदीय
निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव
लड़ा और सफल
रहीं.
शत्रुघ्न
सिन्हा : शत्रुघ्न सिन्हा भारतीय
जनता पार्टी के
सदस्य हैं. वर्ष
1996 में शत्रुघ्न सिन्हा पहली
बार राज्य सभा
के सदस्य चुने
गए. 2002 में उन्हें
दोबारा राज्यसभा सदस्य का
पद प्रदान किया
गया. 2004 में शत्रुघ्न
सिन्हा ने अभिनेता
शेखर सुमन को
हरा कर पटना
निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा
चुनाव जीता. केंद्रीय
मंत्री के रूप
में उन्होंने परिवार
कल्याण मंत्रालय और शिपिंग
मंत्रालय संभाला. वर्ष 2009 में
वह पंद्रहवें लोकसभा
चुनाव में भी
विजयी रहे और
उन्हें पर्यटन, संस्कृति, और
यातायात समिति का सदस्य
बनाया गया. वह
बॉलीवुड छोड़ पूरी
तरह से राजनीति
में सक्रिय रहे.
शत्रुघ्न सिन्हा जय प्रकाश
नारायण के अनुयायी
माने जाते हैं.
शत्रुघ्न सिन्हा ने असहायों
के लिए गृह
निर्माण और लोगों
को नेत्र दान
के लिए प्रेरित
करने के लिए
कई कार्यक्रमों का
भी आयोजन किया.
इसके अलावा वह
दहेज प्रथा और
श्रमिकों पर होने
वाले अत्याचार को
उजागर करने के
लिए कालका और
बिहारी बाबू नामक
सामाजिक फिल्मों का निर्माण
भी कर चुके
हैं. उत्कृष्ट सामाजिक
योगदान के लिए
शत्रुघ्न सिन्हा को बिहार
रत्न सम्मान से
भी नवाजा गया
है. संजय दत्त
: जेल से रिहा
होने के पश्चात संजय
दत्त की नजदीकियां
समाजवादी पार्टी से बढ़ने
लगीं. वर्ष 2009 के
आम-चुनावों से
पहले उन्होंने समाजवादी
पार्टी के टिकट
पर चुनाव लड़ने
की घोषणा की,
लेकिन सुप्रीम कोर्ट
ने उन पर
चल रहे मुक़दमों
को स्थगित करने
से मना कर
दिया, जिसके बाद
उन्हें अपना नाम
वापस लेना पड़ा.
वैजयंति
माला : वर्ष 1989 के चुनाव
के दौरान राजीव
गांधी ने उन्हें
टिकट देकर चुनाव
लड़ने के लिए
आमंत्रित किया, जिसे उन्होंने
स्वीकार कर लिया.
उन्होंने चुनाव ल़डा और
1.5 लाख वोटों से जीत
दर्ज कराई. इसके
बाद वह दो
बार राज्यसभा से
सांसद भी रहीं.
विनोद खन्ना : विनोद खन्ना
1997 भारतीय जनता पार्टी
से जुड़े. अगले
ही वर्ष पंजाब
के गुरदासपुर निर्वाचन
क्षेत्र से लोकसभा
चुनाव जीतने के
बाद विनोद खन्ना
लोकसभा सदस्य बने. 1999 में
हुए चुनावों में
वह एक बार
फिर इस निर्वाचन
क्षेत्र से जीते.
जुलाई 2002 में विनोद
खन्ना को केंद्रीय
मंत्री के तौर
पर संस्कृति और
पर्यटन मंत्रालय दिया गया.
वर्ष 2004 में हुए
लोकसभा चुनावों में विनोद
खन्ना की जीत
हुई, लेकिन 2009 में
पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव में
विनोद खन्ना नहीं
जीत पाए.
चिरंजीवी
: तेलुगू सिनेमा के सुपरस्टार
चिरंजीवी ने 2008 में प्रजाराज्यम
नाम से राजनीतिक
पार्टी बनाई थी.
इस पार्टी का
मुख्य उद्देश्य सामाजिक
न्याय दिलाना था.
2009 के चुनाव में आंध्र
प्रदेश के स्टेट
असेंबली से यह
पार्टी जीती थी.
2011 में उनकी पार्टी
का विलय कांग्रेस
में हो गया.
अमिताभ ने ट्विटर पर अपनी ट्वीट में लिखा है कि उनका
मानना है कि राजनीति कोई बुरा व्यवसाय नहीं है.उन्होंने लिखा है कि यदि आप इस क्षेत्र
में सफल हो जाते हैं, तो आपको बहुत से पुरस्कार मिल सकते हैं, लेकिन अगर आप खुद को
किसी वजह से अपमानित कर लेते हैं, तो आप हमेशा एक किताब लिख सकते हैं.
समाचार एजेंसी पीटीआई से दिल्ली में बातचीत में
धर्मेंद्र ने कहा कि अभिनेता को अभिनय तक ही रहना चाहिए और राजनीति में नहीं जाना
चाहिए.
फ़िल्म इंडस्ट्री में
अपने 50 साल पूरे कर रहे धर्मेंद कहते हैं," मैं ये नहीं कहूँगा कि राजनीति
में आना एक ग़लती थी पर हाँ अभिनेताओं को राजनीति में नहीं आना चाहिए क्योंकि इससे
दर्शक बँट जाते हैं. बतौर कलाकार मेरे प्रशंसकों से मुझे जो सम्मान और प्यार मिला
है वही मेरी उपलब्धि है."
धर्मेंद्र सासंद है और वे
बीकानेर से चुने गए थे लेकिन पिछले कुछ सालों में उन्हें काफ़ी आलोचना झेलनी पड़ी
है कि वे संसद में मौजूद नहीं रहते और अपने चुनाव क्षेत्र में भी नहीं जाते.
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता
है कि किसी भी क़ीमत पर जीत के जब आप चुनाव मैदान में जाते हैं तो आपको कई ऐसे चेहरे
चाहिए जिन्हे जनता पसंद करती हैं. इस खांचे में फ़िल्मी कलाकार आसानी से फिट हो जाते
हैं! और भविष्य में भी यह फेहरिस्त काफी लम्बी होने वाली है! कुछ कलाकार फिल्मों से
सन्यास लेने के बाद या पीट जाने के बाद भी राजनीति में आते हैं और अपनी फ़िल्मी डायलॉग
सुना सुना कर भीड़ भी जुटाते हैं, ज़रूरी नहीं कि यह भीड़ वोट में भी बदले लेकिन सम्भावना
तो रहती ही है!