नेता
और अभिनेता समाज के दो अलग-अलग पहलू हैं। दोनों की अलग-अलग ज़िम्मेदारियाँ हैं। दोनों
ही अपने समय के समाज को प्रभावित करते हैं लेकिन साथ ही, वे एक दूसरे से प्रभावित भी
होते हैं। पुराने समय से ही शासक, सत्ता, राजनीतिक संगठन और समाज के प्रभुत्वशाली वर्ग
अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए कलाकारों का इस्तेमाल करते रहे हैं। कलाकार कभी अपनी इच्छा
से, कभी दबाव में तो कभी स्वार्थ के कारण इस्तेमाल होते रहे हैं। फिर भी नेता और अभिनेता
की सामाजिक भूमिका में फ़र्क मौजूद रहा है और रहना भी चाहिए। कोई अभिनेता समाज की परेशानियों
को समझते हुए एक निश्चित सोच-विचार के साथ सामाजिक कार्य कर सकता है, किसी राजनीतिक
पार्टी में शामिल हो सकता है और उसके लिए प्रचार भी कर सकता है।
मौजूदा
लोकसभा के सांसदों
में 6 फिल्मी कलाकार
और एक फिल्म
प्रोड्यूसर हैं। किरण
खेर, हेमा मालिनी,
गुलपनाग, परेश रावल,
रवि किशन, मनोज
तिवारी, राखी सावंत,
बप्पी लहरी, मुनमुन
सेन, राज बब्बर,
विनोद खन्ना, शत्रुघ्न
सिन्हा जैसे 25 से ज्यादा
फिल्मी लोग इस
बार लोकसभा चुनाव
में उम्मीदवार का
रोल निभा रहे
हैं।
राखी
सावंत को टिकट
नहीं मिला तो
खुद की पार्टी
बना ली। टीवी
पर समाजसेवा की
बड़ी-बड़ी बातें
कर रही थीं।
हरी मिर्ची चुनाव
चिह्न मांगा है।
पॉलिटिक्स भी फिल्मी
हो गई है।
अब यही देख
लो राहुल गांधी
के खिलाफ टीवी
वाली तुलसी। जाने
क्या होगा इस
देश का?
राजनीति
एक ऐसा विषय
है जिस में
आंशिक या पूर्ण
दखल हर नागरिक
रखता है। आज
कल राजनीति का
स्वरूप मर्यादाविहीन दिखाई दे रहा
है। पॉलिटिकल लोग जिस
भाषा का उपयोग
कर रहे हैं,
उसका स्तर बहुत
ही निम्न होता
जा रहा है
। राजनीतिक पार्टियों
एक नया तरीका
अपना रही है और
वह है मुद्दों
पर राजनीति कम
शाब्दिक और व्यक्तिगत
हमलों पर ज्यादा
से ज्यादा राजनीति
करना उन्हें
न तो जनहित
आधारित मुद्दों की फिक्र
है और न
ही देश की।
एक पार्टी ने
सत्ता में रहते
हुए अगर बुरे
काम किए हैं
तो दूसरी पार्टी
देश की जनता
को असलियत से
रुबरु करने की
बजाय सड़कछाप
शब्दावली के जरिये
एक-दूसरे पर
वार कर रही
हैं। कभी कोई
किसी को
गुंडा बताता है तो
कोई किसी को
दरिंदा, कहीं ज़हर
की खेती की
बात हो रही
है तो कहीं
किसी को पाकिस्तानी
एजेंट बताया जा
रहा है। इन
नेताओं की भाषा
सुनकर गली के
लफंगे भी शर्मिदा
हो रहे हैं ऎसा
क्यों हो रहा
है? क्या मजबूरियां
हैं ? उनका उद्देश्य
क्या है?
इन्हें
ये समझना चाहिए किराजनीतिक भाषा
उपहास का साधन
नहीं है। राजनीति
एक ठिठोलेपन जैसी
क्रिया भी नहीं
है। राजनीति एक
गंभीर विषय है
और उसकी जड़
प्रजातंत्र में है
इसलिए यह जरुरी
है कि राजनीतिक
भाषा और समाज के
बीच में सामंजस्य
बनाए रखा जाए।
बयानबाजी
के इस दौर में वैसे ये देखना सुखद है कि जो फ़िल्मी अभिनेता या अभिनेत्रियां राजनीति
में आ रहे हैं उनके संवाद और डायलाग अदायगी खूब सराहे जा रहे हैं!
भारत
माता है पीड़ा में, यह भीड़ पीड़ा की मूरत है। नार्थ ईस्ट ललकार रहा, देश पुकार रहा,
अब मोदी की जरूरत है। दिल्ली के नार्थ ईस्ट लोकसभा से भाजपा प्रत्याशी मनोज तिवारी
प्रचार के दौरान इस गीत के साथ छाए रहे!
एक
मुस्लिम युवा रहमान उस्मानपुर में उनसे पूछ लेता है आप तो सपा में थे। तिवारी ने कहा
, ना रे भईया हम तो दिल से कभी वहां थे ही नहीं, चुनाव जरूर लड़े थे उसका आज भी मलाल
है। कहीं न कहीं फ़िल्मी अंदाज़ में इनके संवाद लोगों को आकर्षित कर ही लेते हैं!
नई
दिल्ली रेलवे स्टेशन के बाहर आधा दर्जन ऑटो रिक्शा खड़े थे। उनके ऊपर लगे लाउड स्पीकर
पर मोहम्मद रफी का मेरे सनम फिल्म का गाना सुनाई दे रहा था। 'पुकारता चला हूं मैं,
गली-गली बहार की।।।'। कोई कुछ समझता इससे पहले ही अचानक गाना बीच में रुकता है और एक
आवाज सुनाई देती है, 'मैं हूं बिश्वजीत, बॉलीवुड अभिनेता, नई दिल्ली सीट से इस लोकसभा
चुनाव में आपका प्रत्याशी।' इतना वाक्य पूरा होते ही फिर से एक नया गाना गूंजने लगता,
'बेकरार करके हमें यूं न जाइए, आपको हमारी कसम लौट आइए ।।।'।
ये
नजारा था, तृणमूल के नई दिल्ली सीट से उम्मीदवार बिश्वजीत के रोड शो का। वे जिस भी
ओर जाते हैं, उनके साथी अनाउंस करते हैं, 'भाइयो बहनों, आपके बीच बॉलीवुड के सुपरस्टार
बिश्वजीत आ चुके हैं। इनकी हिट फिल्में थीं, बीस साल बाद, दो कलियां, मेरे सनम, अप्रैल
फूल, नाइट इन लंदन। ये गीत इन्हीं की फिल्मों के हैं। आने वाली 10 अप्रैल को आप घास
पर दो फूल का बटन दबाएं।' अधेड़ उम्र के लोग बीच-बीच में आकर उनसे उत्सुकता से हाथ
मिलाते।
वाक़ई
ये राजनीति भी बहुत फ़िल्मी है! फ़िल्म से राजनीति में गए ऐसे अनेक कलाकार हैं जिनकी
ईमानदारी और निष्ठा पर विरोधी पार्टियाँ भी संदेह नहीं कर सकतीं। अपनी सेवा से उन्होंने
यह सम्मान हासिल किया है। शत्रुघ्न सिन्हा शुरू से ही विपक्ष के प्रचारक रहे, उन्होंने
खुलकर भाजपा का समर्थन किया और मंत्री बनने से पहले संतरी की भूमिका निभाते रहे। और
आज वो चाहे कहीं भी राजनितिक प्रचार क्यों न कर रहे हों श्रोता या वोटर उनसे उनका ट्रेड
मार्क संवाद खामोश कहने को ज़रूर कहते हैं! दोबारा चुने जाने की चुनौती का सामना कर
रहे पटना साहिब से भाजपा सांसद शत्रुघ्न सिन्हा के पक्ष में प्रचार उनकी पुत्री और
बालीवुड अदाकारा सोनाक्षी और पत्नी पूनम सहित परिवार के अन्य सदस्य भी कर रहे हैं।
अपनी फिल्मों की शूटिंग के दबाव के मद्देनजर समय नहीं मिल पाने के कारण ‘दबंग’ फिल्म की मशहूर अभिनेत्री
सोनाक्षी सिन्हा अपने पिता के पक्ष में चुनाव प्रचार के लिए पटना नहीं आ पाने के कारण
इसके लिए सोशल मीडिया का सहारा लिया है।
शत्रुध्न
सिन्हा कहते हैं कि मेरी राय में बरसों की मेहनत और दर्शकों से मिले प्यार से बनी लोकप्रिय
छवि का दुरूपयोग नहीं होना चाहिए। जब कोई नेता किसी फिल्मी कलाकार को नचैया-गवैया कहकर
संबोधित करता है तो मुझ जैसे कलाकार के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचती है। इतनी मेहनत से
हासिल सम्मान को हम एक झटके में खो देते हैं। वैसे भी, चुनाव प्रचार में कलाकारों की
भूमिका क्या होती है? भीड़ जुटाना, किसी बड़े नेता के भाषण के पहले श्रोताओं का ध्यान
खींचना या दो नेताओं के भाषण के बीच मौजूद भीड़ को बाँधे रखना। क्या राजनीति में इसी
योगदान के योग्य हैं हम? साथी कलाकारों से मेरा निवेदन है कि खुद को इतना नीचे न गिराएँ।
हाँ, अगर समाज की परेशानियाँ उद्वेलित करती हैं, किसी राजनीतिक पार्टी का घोषणापत्र
उचित लगता है या अपने राजनीतिक योगदान के प्रति गंभीर हैं तो अवश्य जाएँ।
वहीँ
भाजपा की नेता हेमामालिनी अपने चुनावी रणक्षेत्र यानी मथुरा लोकसभा में भारी गर्मी
के बावजूद पूरे मन से प्रचार में जुटी हैं और वे भी जहाँ जाती हैं तो शोले के कुछ डायलाग
खासकर बसंती के अंदाज़ देखने-सुनने की डिमांड पब्लिक कर ही देती है।
फ़िल्मी
कलाकारों की फेहरिस्त लम्बी है और उनके चाहने वालों की भी, साथ ही उनके फ़िल्मी करियर
के कुछ संवादों की डिमांड भी! आखिर कहीं न कहीं फ़िल्मी कलाकारों का मतलब मनोरंजन से
जोड़ कर देखा जाता रहा है इसलिए राजनीति के मंच से भी दर्शक उनसे वही अपेक्षा रखता है
जो वे फ़िल्मी परदे पर देखते-सुनते आये हैं। इसलिए भी ये कहना मुनासिब ही होगा की ये
राजनीति भी बड़ी फ़िल्मी है!
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