Tuesday, September 15, 2020

अनमोल आँसू

आँसू अनमोल होता है। इन्हें सस्ते लोगों के सामने नहीं बहने दीजिये। वे ताना मारेंगे, कमजोर कहेंगे, मूर्ख और मंद बुद्धि भी समझेंगे। जब मन छलक उठे तो एकांत में बैठकर जब तक जी करे, रो लीजिये। फिर खुद के ही पीठ थपथपा कर अपने आप को चीयर कीजिये। यह दुनिया इतनी संवेदनशील नहीं कि आपके आँसू का मर्म समझ सके। कुछ लोग कहेंगे कि आप सहानुभूति पाना चाहते हैं, इसलिए रोने का अभिनय करते हैं। ऐसे लोगों के सामने भूल से भी न रोइए। ये भीतर से बेहद कातर और निष्ठुर लोग होते हैं। होता है कभी कभी दिल नहीं मानता, आप किसी पुराने के आगे भावविभोर हो जाते हैं। आप कलेजा फाड़ कर रोना चाहते हैं। फिर भी खुद को संभालिये। यह समाज पुरुषों पर कुछ ज़्यादा ही ज़्यादती करता है नहीं तो :क्या औरतों की तरह रोता है?' जैसे जुमले चलन में नहीं आते। पुरुष हो या स्त्री कलेजा सभी का फटता है। रोना सभी को आता है। जीवन के किसी नितांत निजी अवसाद या घुटन के क्षणों में आँसू बहने ही लगते हैं। आतुर हृदय संयम नहीं रख पाता। जब भी कभी ऐसा मौका आये तो प्रयास यही कीजियेगा कि किसी ओछे इंसान के कांधे पर आप आश्रित न रहें। क्योंकि आँसू अनमोल है, इन्हें सस्ते लोगों के सामने बहने नहीं दीजिये। #हीरेंद्र #जीवनकीपाठशाला

Sunday, September 13, 2020

अंतिम प्रणाम रघुवंश प्रसाद सिंह



जीवन का पहला टीवी इंटरव्यू मैंने रघुवंश प्रसाद सिंह का किया था.. तब वो मनमोहन सिंह सरकार में ग्रामीण विकास मंत्री हुआ करते थे.. साल 2006, मैं दूरदर्शन के लिए ट्रेड फेयर कवर कर रहा था.. मंत्री जी किसी को बाइट नहीं दे रहे थे.. मैं धक्का-मुक्की खाते हुए मंच पर चढ़ गया और कहा- 'अंकल आपकी बाइट चाहिये..' वो हँसने लगे.. बोले-' पहली बार आये हो क्या?' मैंने कहा- जी ... और फिर उन्होंने बड़े प्यार से मुझसे बातचीत की। अब कोई भी उनका इंटरव्यू नहीं कर पायेगा। उन्हें अंतिम प्रणाम।

निधन से बस कुछ घंटे पहले ही उन्होंने लालू प्रसाद यादव को चिट्ठी लिख कर पार्टी से अलग होने की बात बता दी थी। उससे पहले वो बीते 32 साल से लालू प्रसाद के साथ हर पल और मुद्दे पर खड़े रहे थे। लालू पर दुनिया भर के आरोप ल लेकिन, रघुवंश बाबू उनके साथ रहकर भी बेदाग रहे। पूरी ज़िंदगी वो जनता से जुड़े सवाल मजबूती से उठाते रहे हैं। उनके निधन के बाद राजनीति के एक युग का अंत भी हो गया।


Monday, August 31, 2020

विदा प्रणब मुखर्जी, एक बच्चे की नज़र से



बाबूजी के साथ एक बार कोलकाता गया था। तारीख़ मुझे अच्छे से याद है- 5 मार्च 1996। हावड़ा ब्रिज पार करते ही नेताजी सुभाष चंद्र बोस मार्ग पर कोल इंडिया का मुख्यालय है। वहीं Indian National Trade Union Congress (INTUC) का कोई कार्यक्रम था। उस दौर में बाबूजी का अलग ही जलवा था। मैं मंच पर बाबूजी के साथ बैठा था। बगल में एक और सज्जन थे। मेरे गाल को प्यार से खींचते हुए उन्होंने पूछा- की नाम? मैंने कहा- हीरेंद्र झा। उन्होंने बड़े ही प्यार से लेकिन आत्मविश्वास भरते हुए कहा- झाजी का बेटा है, मन से पढ़ना, खूब पढ़ना। मुझे अच्छे से याद है कि बाद में उन्होंने किसी से मंगा कर मुझे एक पैकेट बिस्किट भी पकड़ाया। वो मेरी उनसे इकलौती मुलाकात है। आज जब प्रणव मुखर्जी के निधन की ख़बर आयी तो मैं वहीं इंटक के कार्यक्रम में पहुँच गया। मेरा मन थोड़ा सा इमोशनल हो गया। बड़े लोग, विरले लोग ऐसे ही होते हैं शायद जो एक बच्चे को भी एक ही मुलाकात में वो अहसास दे जाते हैं जो कई बार कोई विश्वविद्यालय भी नहीं दे पाता! नमन करता हूँ आपको। ईश्वर आपको अपने श्री चरणों में स्थान दें।

Saturday, August 29, 2020

हीरेंद्र की डायरी: अतीत और भविष्य नहीं बल्कि वर्तमान के प्रति सजगता ज़रूरी

लॉक डाउन में अकेले रहते हुए बहुत सी बातें मेरे मन में चलती रही हैं। आज हर तरफ जिस तरह का माहौल है, ऐसे में मुझे सब कुछ फ़र्ज़ी लगने लगा है। लगने लगा है कि ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है? यह जान गया हूँ कि जीने के लिए बहुत ज़्यादा भौतिक वस्तुओं की ज़रूरत नहीं होती। सुकून से जो मन को ठीक लगे, सहज भाव से जितना हो सके करते रहना चाहिए। पागलों की तरह किसी चीज़ के पीछे भागते रहने की बेचैनी से कुछ हासिल नहीं होता। ऐसे में आदमी कुछ पा भी ले तो नई बेचैनियां ढूंढ लेगा। इसका कोई अंत नहीं।  आनंद और गरिमा के साथ जीवन जीना इसी में असल सुख है। छोटी छोटी बातों पर जितने समझौते आज हम कर रहे हैं, इसकी कोई ज़रूरत ही नहीं है। उतना तो हम जीने वाले भी नहीं, जितना किसी चीज़ के लिए मरे जा रहे हैं। सुकून, मन की शांति यही बड़ी चीज़ है। मन में उमंग, उल्लास और उत्साह बचा रहे यही असली आनंद है। मेरे भीतर संसार की किसी वस्तु के लिए अब कोई ललक नहीं बाकी है। मेरा मन बस अब इसी में रमता जा रहा है कि मैं कैसा महसूस कर रहा हूँ। अगर मैं अच्छा महसूस कर रहा हूँ तो ठीक। नहीं तो वो करता हूँ जिससे अच्छा महसूस कर सकूँ। उन सभी लोगों से दूर होता जा रहा हूँ जो मुझे छोटा या बुरा महसूस कराते हैं। अपनी छोटी सी दुनिया में कुछ गिने चुने चेहरों के साथ मैं बहुत खुश हूँ। रोज़ एक घंटा काम करके भी मैं इतना कमा लेता हूँ कि महीने भर शांति से जीवनयापन कर सकूँ। इससे ज़्यादा मुझे कुछ चाहिए भी नहीं। मेरा स्वाभिमान बचा रहे, बस यही एक भाव जगता है। मैं अपने वर्तमान को लेकर बहुत ही स्पष्ट और सजग हो चला हूँ। अतीत और भविष्य से मुझे अब बहुत ज़्यादा प्रयोजन नहीं। जो है अभी और इसी पल में है। बात लंबी हो गयी है। आगे की कहानी फिर सही। आज बस इतना ही।

#हीरेंद्रकीडायरी

Thursday, August 27, 2020

राजदीप सरदेसाई और रिया चक्रबर्ती की बातचीत

*वो ड्रग्स लेता था, मैं मना करती थी पर वो अपनी मर्ज़ी का मालिक था। 
*उसने 5 साल तक अपने पिता से बात नहीं की। पिता से उसकी नहीं पटती थी क्योंकि उन्होंने उसकी माँ को छोड़ दिया था। 
*उसकी बहन शराब के नशे में मुझे मोलेस्ट कर चुकी है।
*एक बार उसने मेरे मेकअप का पैसा दिया था तो मुझे ठीक नहीं लगा तो मैंने 35 हज़ार रुपये उसके एकाउंट में ट्रांसफर कर दिए थे।

आज रिया चक्रवर्ती ने आजतक के राजदीप सरदेसाई को इंटरव्यू देते हुए यह सब बातें कहीं। महेश भट्ट को पितातुल्य भी बताया। यह भी कहा कि मेरी माँ आज कल में अस्पताल में भर्ती होने वाली हैं। उन्होंने जोर देकर कहा कि मुझे भी लगने लगा है कि मैं सुसाइड कर लूँ, नहीं तो मुझे और मेरे परिवार को गोली से मारकर मामला ही ख़त्म कर दिया जाए।


मैंने बस रिया की बात लिखी है। अपने मन से एक शब्द भी नहीं लिखा ऊपर। मैं कोई राय या फ़ैसला नहीं दे रहा हूँ पर आज मुझे यक़ीन हो गया है कि सुशांत ने सुसाइड नहीं किया है। 

हीरेंद्र झा

Wednesday, August 26, 2020

एक प्रेमी की डायरी का पंद्रहवाँ पन्ना : हीरेंद्र झा

एक प्रेमी की डायरी : 15


बहुत दिन हुए यार तेरे साथ बैठकर तसल्ली से बात तक नहीं हुई। ऐसे में तुम ही कहो ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है? इस दुनिया में मुझे जो कुछ भी पाना है वो सब स्थगित किये बैठा हूँ। सब कुछ परसों पर टाल रखा है कि शायद कल तुमसे मिलना हो सके। कितनी ही शामें हमने यूँ ही बतकही करते हुए गुज़ार दी हैं, उतने तो मैं तारों को भी नहीं पहचानता। हाँ इकलौते चाँद को जानता हूँ जो गवाह रहा है हमारे मिलन का। एकांत की अपनी एक मर्यादा होती है, होनी भी चाहिए। लेकिन, कभी कभी यह एकांत अपनी सीमा लाँघ कर मुझ पर इस कदर हावी हो जाता है कि जैसे मेरे अस्तित्व पर कोई ग्रहण लग गया हो। कुछ नहीं सूझता। की-बोर्ड पर टाइप करते हुए ख़ुद को संभालने की कोशिश में जुट जाता हूँ। कभी कभी संभल भी जाता हूँ और कई बार बस केवल तड़प कर रह जाता हूँ। ऐसे में कोई मेरे सिरहाने आसमान भी रख दे तो भी वो व्यर्थ मालूम होता है। मुझे वो आसमान नहीं चाहिए जिसके चाँद में तुम्हारा चेहरा, जिसके सूर्य में तुम्हारे प्रेम की तपिश और जिसके इंद्रधनुष में तेरा रंग न हो। 

हीरेंद्र झा

(एक प्रेमी की डायरी से चुनकर कुछ पन्ने हम आपके लिए लाते रहेंगे)

Sunday, August 02, 2020

राखी पर पढ़िए एक भाई की पाती : हीरेंद्र झा

रक्षाबंधन विशेष: ‘दुनिया की सभी बहनों की कलाई पर स्नेह का एक धागा मेरा भी’: हीरेंद्र झा


आज देश भर में रक्षाबंधन का पर्व बड़ी ही धूम-धाम से मनाया जा रहा है। भाई- बहन के पवित्र रिश्ते का यह पर्व बेहद ख़ास होता है। इस दिन हर बहन अपने प्यारे भाई की कलाई पर राखी बांधती है और इसे एक प्रतीक के रूप में देखा जाता है कि भाई अपनी बहन की रक्षा करेगा। मुझे कहने दीजिए कि यह प्रतीक बहुत पहले ही बदल देना चाहिए था। सच तो यह है कि वो बहनें ही हैं जिनकी दुआएँ भाई की रक्षा करती रही हैं। भाई उनकी रक्षा करेंगे यह कहकर कहीं न कहीं हम बहनों को कमजोर आँकने की गलती सदियों से करते आए हैं। आज के दिन दुनिया की सभी बहनों की कलाई पर स्नेह का एक धागा मेरा भी हो, ताकि उनकी दुआएँ यूं ही करती रहें हम भाइयों की रक्षा!
लिखने वालों ने कभी दीदी और बहन पर उस तरह से कलम नहीं चलाई जिस तरह से माँ, बेटी या महबूब पर लिखा है। आखिर बहनों के साथ यह भेदभाव क्यों? मैं समझता हूँ दीदी या बहन इस दुनिया का एक मात्र ऐसा रिश्ता है जहां कोई मोल-भाव नहीं होता। जहां कोई अपेक्षा नहीं रहती। बरसों बाद मिलने पर भी दीदी अपने भाई को उसकी पसंदीदा डिश खिलाना नहीं भूलती। कभी कोई शिकायत नहीं करती। महीनों बाद भी फोन करो तो यह ताना नहीं मारती कि तुम तो भूल ही गए? यह सब मैं अपने अनुभव से लिख रहा हूँ।


इस दुनिया का हर वो भाई जिसकी एक भी दीदी हो, उसका बचपन एक राजकुमार की तरह ही गुज़रता है। मैं खुशनसीब हूँ कि मेरी अपनी सात दीदियां हैं और एक छोटी बहन भी। यक़ीनन मेरा बचपन दीदीयों की छाँव में एक राजकुमार की तरह ही गुज़रा है। मुझे याद है, बचपन में जब भी कभी मैं बाहर से खेल कर घर आता तो पलक झपकते ही मेरे सामने एक साथ दो,तीन गिलास पानी के होते। मैं एक-एक घूंट पानी सभी गिलासों से पीता। मेरी सभी दीदियों के हृदय को जैसे ठंडक मिल जाती! जब मैं स्कूल जाने लगा तब सब मिलकर मुझे स्कूल जाने के लिए तैयार किया करतीं। कोई शर्ट पहना रही होतीं तो कोई जूते। कोई मेरे घुँघराले बालों में कंघी कर रही होती तो कोई टिफिन पैक करके बैग में रख देती।
जब भी खेलते हुए मुझे थोड़ी भी देर हो जाया करती तो मैं देखता मेरी कोई न कोई दीदी मुझे खोजते हुए बुलाने को आ गई है। मैंने अपनी माँ को कभी रसोई घर में नहीं देखा। यह पंक्तियाँ लिखते हुए मुझे अपनी दीदियों के हाथों के बने आलू परांठे याद आ रहे हैं, घर छोड़ने के बीस बरस बाद भी वो स्वाद मैं कभी भूल ही नहीं सका। न ही कहीं चखने को मिला।
रंगोली, चित्रहार, रामायण, महाभारत, चंद्रकांता, जंगल बुक दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले ये सभी धारावाहिक मैंने अपनी दीदियों की गोद में बैठकर देखे हैं। मेरे पूरे अस्तित्व पर उन सबकी छाप है। क्या आपने कभी सोचा है कि सारे शास्त्र मातृ-ऋण और पितृ-ऋण की बात करते हैं पर वास्तव में बहनों के ऋण की बात कोई नहीं करता, जो हम कभी नहीं चुका पाते।
हमारा परिवार बड़ा था। बाबूजी सरकारी नौकरी में तयशुदा वेतन पाते थे। लेकिन, सम्मान और स्वाभिमान की सीख मुझे बहनों ने ही सिखाई है। एक-एक करके बाबूजी ने सबकी शादी कर दी और वे अपने घर चली गईं। मेरे बारहवीं पास करते-करते सभी दीदियों की शादी हो चुकी थी। शांति दीदी, क्रांति दीदी, नीलम दीदी, बेबी दीदी, नूतन दीदी, गीता दीदी, किरण दीदी बारी-बारी सब अपने ससुराल चली गईं। सबसे आखिर में छोटी बहन रूबी भी। मैं भी घर छोड़ कर कॉलेज के बाद आगे की पढ़ाई करने दिल्ली चला गया। पढ़ाई और करियर बनाने में ऐसा उलझा कि मैं भूल ही गया कि मैं सात दीदियों और एक बहन का भाई हूँ। आज तक किसी भी दीदी ने मुझसे कभी कोई शिकायत नहीं की। कोई उलाहना नहीं दी, कोई ताना नहीं मारा। बीते बरसों में जब भी उनसे मिला तो उनसे वही प्यार और अपनापन पाया जो दुनिया के और किसी रिश्ते में संभव नहीं। लॉक डाउन और कोरोना संकट के इस साल में भी हर बार की तरह मेरी राखियां मुझ तक पहुँच गई हैं, जिन्हें कलाई पर बांध कर मैं बड़े ताव से इतरा रहा हूँ।


मेरा यह लेख #जनसत्ता में 16 मई 2014 को प्रकाशित हुआ था।








हैप्पी फ्रेंडशिप डे : हीरेंद्र झा


मेरे साथ मेरी दोस्त निमिषा 


अतीत की स्मृतियों में जब भी कभी भटक रहा होता हूँ तो मैंने यही अनुभव किया है कि दोस्ती और मोहब्बत हाथों में हाथ लिए चलती हैं। यारा-दिलदारा जैसे जुमले यूँ ही तो नहीं बनते न?  मेरी सभी प्रेमिकायें मेरी अच्छी दोस्त भी रही हैं। यह बात हमारी पीढ़ी को 'कुछ कुछ होता है' के राहुल और अंजली ने बताई थी कि प्यार दोस्ती है। अगस्त का पहला रविवार हम दोस्ती के दिन के रूप में ही मनाते हैं।  जीवन में कम से कम एक दोस्त तो ऐसा होना ही चाहिए जिससे आप सब कुछ साझा कर सकें। दोस्ती हमारे जीवन का सबसे खूबसूरत रिश्ता होता है। जो बात हम अपने माता-पिता-भाई से नहीं कह पाते वो हम अपने बंधु से कह जाते हैं। कुछ लोग दोस्ती को एक अलग ही नरमी और नमी दे जाते हैं। इन्हीं से जीवन सुगंधित और समृद्ध बनता है। कुछ की खुशबू सदा साथ रहती है तो कुछ स्मृति की गलियों को महकाती रहती हैं।

अपने जीवन को जब बाँट कर देखता हूँ तो धनबाद से लेकर भागलपुर और दिल्ली से लेकर मुंबई तक की इस यात्रा में कई दोस्त बने। आज के दिन वे सब याद आये। स्कूल का दोस्त ऑरोविल, कॉलेज का गौरव और यूनिवर्सिटी में वरुण ये सब आज भी मेरे अच्छे दोस्त हैं। दिल्ली में रहते हुए गीतांजलि, प्रीतिलता और शालिनी जैसे दोस्त मिले। शालिनी से तो मैंने बाद में शादी भी की। अब तो शादी को भी दस साल गुज़र गए। एक सुबह दिल्ली छोड़ कर मुंबई चला आया। यहाँ रीतेश, शिखा और संजय जैसे मित्र मिलें। इरशाद भाई से गहरी दोस्ती हुई। निमिषा मिली जिससे जीवन को एक अलग ही रंग मिला। आज मैं अपने सभी दोस्तों के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ। बहुत कम लोग जानते हैं कि मैं स्वभाव से अंतर्मुखी रहा हूँ और कभी-कभी मुझे अपना साथ भी गंवारा नहीं होता। ऐसे में जीवन ने कुछ दोस्त दिए हैं तो यह ऊपरवाले का करम ही तो है। दोस्ती ज़िंदाबाद रहे, ज़िंदगी और दुनिया आबाद रहे आज के दिन इससे ज़्यादा कोई क्या चाहेगा?

Friday, July 24, 2020

दिल बेचारा, एक अधूरी कहानी : हीरेंद्र झा






कल देर रात मैंने सुशांत सिंह राजपूत की फ़िल्म #दिलबेचारा देखी। यह फ़िल्म कल ही हॉटस्टार पर रिलीज़ हुई है। ज़ाहिर है यह सुशांत की आख़िरी फ़िल्म है। अब वो बड़े पर्दे पर कभी नहीं नज़र आयेंगे। अब सवाल है कि यह फ़िल्म कैसी है? एक दर्शक के नाते फ़िल्म देखते हुए आप कई बार भावुक हो जाते हैं। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि हमें मालूम है सुशांत अब इस दुनिया में नहीं हैं। अगर वे ज़िंदा होते तो फ़िल्म हम एक अलग नज़रिए से देख पाते। स्क्रीनपले के लिहाज़ से फ़िल्म का सेटअप बिल्कुल परफेक्ट है। कहानी हम जानते थे क्योंकि यह एक हॉलीवुड फ़िल्म की रिमेक है। डायलॉग लिखने वाले को लगता है कि ज़्यादा फ़ीस नहीं दी गयी होगी। संवाद और भी अच्छे हो सकते थे। फ़िल्म के संगीत में एक आकर्षण ज़रूर है और गाने के बोल भी कहीं न कहीं आपके मन को छू लेते हैं। सिनेमेटोग्राफी यानी कैमरे का काम बहुत खूबसूरत है। जमशेदपुर से लेकर पेरिस को जिस तरह से दर्शाया गया है, अद्भुत है। अभिनय की बात करें तो सुशांत सिंह राजपूत का परफॉर्मेंस काफ़ी दमदार है। सैफ़ अली ख़ान थोड़ी देर को ही नज़र आये लेकिन, फ़िल्म का जो इकलौता संदेश है वो उन्हीं के संवाद से जाना जा सकता है। डायरेक्शन की बात नहीं करूंगा। उनके लिए बस 'सेरी' ही कह सकता हूँ। कुछ कमियां भी हैं, उनकी बात जानकार लोग करेंगे। बचपन से हम सब यही तो सुनते आए हैं- 'एक था राजा, एक थी रानी.. दोनों मर गए ख़त्म कहानी।' लेकिन, मरने से पहले जी लेने की बात इशारे में ही सही #दिलबेचारा ने बेहद ही ख़ूबसूरती से बताने की कोशिश की है। कई मामले में यह एक अधूरी सी प्रेम कहानी है। ठीक वैसे ही जैसे सुशांत सिंह राजपूत का सफ़र अधूरा ही रह गया। उनके चाहने वालों के लिए यह फ़िल्म एक सौगात की तरह है। 

मेरी रेटिंग 5 में से 3 स्टार। अलविदा सुशांत सिंह राजपूत!


Saturday, July 04, 2020

काफ़्का के बारे में

लौटना

चालीस की उम्र में फांज काफ़्का; जिनकी शादी नहीं हुई थी और न ही कोई संतान थी; एक बार बर्लिन के एक पार्क में टहल रहे थे। वहाँ उन्हें एक बच्ची मिली जो अपनी प्यारी गुड़िया के खो जाने पर रो रही थी। बच्ची के साथ काफ़्का ने ने भी उस गुड़िया को खोजने की कोशिश की, लेकिन वह बेकार हुई। काफ़्का ने कहा कि अगले दिन हम दोनों यहीं मिलेंगे और गुड़िया को फिर से खोजेंगे।

अगले दिन जब बहुत खोजने पर भी गुड़िया उन्हें नहीं मिली तो काफ़्का ने बच्ची को एक चिट्ठी थमाई जो उस गुड़िया ने "लिखी" थी। उसमें लिखा था, "प्लीज तुम मत रोना, मैं एक ऐसी ट्रिप पर निकली हूँ जिसमें मुझे इस दुनिया को देखना है। मैं अपने रोमांचकारी अनुभवों के बारे में तुम्हें लिखती रहूँगी।"

इस तरह एक कहानी शुरू हो गई जो काफ़्का की ज़िंदगी के अंत तक लिखी जाती रही।

अपनी मुलाकातों के दौरान काफ़्का रोमांचक संवादों से भरी हुई उन चिट्ठियों को बहुत ध्यान से पढ़ते जो अब बच्ची को भी खूब भाने लगी थीं।

आख़िर एक दिन काफ़्का ने लगभग वैसी ही गुड़िया लाकर उसे दिया जैसी कि बच्ची ने खुद खरीदी थी। वह गुड़िया जो अपनी "ट्रिप" के बाद बर्लिन लौट आयी थी। "यह कहीं से भी मेरी अपनी गुड़िया जैसी नहीं लगती है", बच्ची ने कहा। 

काफ़्का ने उसके हाथ में एक और चिट्ठी पकड़ाई जिसमें लिखा था, "मेरी यात्राओं ने मुझे बदल दिया है। मैं अब पहले जैसी नहीं रही।" छोटी बच्ची ने नई गुड़िया को सीने से लगा लिया और ख़ुशी-ख़ुशी अपने घर ले आई।

एक साल बाद काफ़्का की मृत्यु हो गयी।

कई साल बाद जब बच्ची बड़ी हो गयी तो उसे गुड़िया के अंदर रखी हुई एक चिट्ठी मिली। एक छोटी-सी चिट्ठी, जिसपर काफ़्का के हस्ताक्षर थे और लिखा था, "वैसी हर चीज जिसे तुम प्यार करते हो शायद कभी खो जाएगी, लेकिन अंत में वही प्यार दूसरे रूप में लौटकर तुम्हारे पास आ जाएगा।"

(काफ़्का के जन्मदिन पर प्रस्तुत एक पोस्ट का Pankaj Bose द्वारा किया गया अनुवाद)

Monday, June 15, 2020

फेसबुक पर ज्ञान की बारिश, बेशर्मों ने कहा तैरना चाहिए था

फेसबुक पर हो रही ज्ञान की बारिश, बेशर्मों ने कहा तैरना चाहिए था

मुंबई, हीरेंद्र झा। अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत से देश सदमे में है और इस सदमे की झलक कम से कम सोशल मीडिया पर काफी मात्रा में दिख रही है। प्रथम साक्ष्य की माने तो सुशांत ने आत्महत्या कर ली है। रविवार सुबह उनका पार्थिव शरीर उनके बांद्रा वाले घर के बेडरूम में झूलता हुआ मिला। ख़बर आते ही इस पर अलग अलग तरह की प्रतिक्रिया आने लगी। लेकिन, सोशल मीडिया इस मुद्दे पर शोकाकुल तो दिखा लेकिन वो प्रवचन मोड में नज़र आया। किसी ने कहा कि उसे किसी दोस्त से फोन पर बात करनी चाहिए थी। किसी ने लिखा जीवन में कुछ रिश्ते ऐसे होने चाहिए जिससे आप जब चाहो अपना दर्द साझा कर सको। किसी ने यहाँ तक कह दिया कि आप परेशान हैं तो सीधे मुझे कॉल कीजिये, हम सुनेंगे आपको। कोई सुशांत को कायर कह रहा, कोई भगोड़ा। ज़ाहिर है काम तो सुशांत ने गलत ही किया है पर इसे बहुत गहराई से समझने की ज़रूरत है। मनोवैज्ञानिकों की माने तो इंसान कई बार इस कदर अवसाद में डूब जाता है कि किसी भी नाज़ुक मौके पर वो आत्महत्या कर सकता है। जानकार कहते हैं कि इस भावावेश भरे लम्हें में अगर कोई कांधा आपको मिल जाये तो आप इससे बच सकते हैं। जो बिना आपको जज किये, आपके साथ मजबूती से खड़ा हो। यह इतना भी आसान नहीं। ज्ञान देना आसान है, पर जिस पर बीतती है वही जानता है। आज परिवार तक में जिस तरह से रिश्ते टूटने लगे हैं ऐसे में बाहरी दुनिया में कोई हमराज़ मिले यह आसान नहीं। हर इंसान का परिवेश, उसकी सोच और ज़रूरतें अलग होती हैं। उसके इमोशन नितांत ही निजी होते हैं। कई बार झिझक में भी वो किसी से अपना दर्द शेयर नहीं कर पाता। करता भी है तो कई बार उसका मज़ाक बनाकर, कमजोर साबित कर दर्द पर मिट्टी डाल दी जाती है। ऐसा हमेशा से होता आया है। कहते हैं न कि एक विजेता के सौ बाप होते हैं, पर एक हारा हुआ व्यक्ति अनाथ होता है। हमें अपने आस पास की दुनिया के लिए कहीं ज़्यादा संवेदनशील होने की ज़रूरत है। कितने ही दर्द और भावनाओं की नियति है कि वो अनसुनी ही रह जाती हैं। इन्हें सुनने के लिए आत्मिक रूप से आपका जगा हुआ होना पहली शर्त है। फिर दिखावे की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। लोग खुल कर आपसे अपनी बात शेयर कर पायेंगे। जो लोग आत्महत्या की सोच रहे हैं उनसे बस यही कहना चाहूँगा कि जीवन अनमोल है। बकौल ज़ौक़ तो वे घबरा के कहते हैं कि मर जायेंगे, मर कर भी चैन न मिला तो किधर जायेंगे!"

Sunday, May 31, 2020

अलविदा वाजिद

संगीतकार साजिद-वाजिद की यह जोड़ी आज टूट गयी। वाजिद के निधन की ख़बर से आज मन उदास है। हम जैसे नये लोगों से भी वो बेहद प्यार और सम्मान से मिलते थे। उनकी आत्मा को शांति मिले, यही प्रार्थना।




Tuesday, April 28, 2020

#एकप्रेमीकीडायरी #हीरेंद्र

ज़िंदगी से होने को तो बहुत सारी वाज़िब शिकायतें हैं मेरे पास पर साँस लेने की सिर्फ़ एक वजह आज भी तुम ही हो। जैसे चाय की इन चुस्कियों में तेरी स्मृतियों का स्वाद घुला है, वैसे ही खिलते-महकते ये फूल मुझे तुम्हारी निर्मल मुस्कान की याद दिलाये संभाले रहती हैं। मैंने पिछले एक महीने में तुमको जितना याद किया है, इतने पर रामायण काल में परमपिता ब्रह्मा स्वयं प्रकट हो जाया करते थे। आज भी अगर वे आ जाएं और मुझे कुछ वरदान देने का मन बनाएं तो मैं उनसे बस यही माँगू कि मेरे चित्त से तुम्हारी छवि कभी धूमिल न होने पाए। सुना तुमने उन्होंने तथास्तु कहा है। क्या कहा? मैं बौरा गया हूँ। हो सकता है.. क्योंकि किसी के प्रेम में बौरा जाने की पूरी संभावना होती है। इसके अलावा कोई और विकल्प भी तो नहीं! #एकप्रेमीकीडायरी #हीरेंद्र

Monday, April 27, 2020

एक प्रेमी की डायरी 😊 #हीरेंद्र

तुमको याद करते हुए जब मेरा मन खुद से ही बात कर रहा होता है ...
तो मैंने यह अनुभव किया है, कि मेरा ये मन, कई बार मुझे ही सुनने से इंकार कर देता है...

हाँ, जब ज़िक्र तुम्हारा आ जाए तो यह इकलौता सा मेरा दिल भी मेरी नहीं सुनता।

 हवा, मौसम, चाँद, सितारे, बादल, पेड़, ये फूल... कोई भी मेरी नहीं सुनता।

 जिसे मैं अपना हमराज़ समझता हूँ, वो समंदर भी मुँह फेर कर मुझे पहचानने से इंकार कर देता है.

 तुम यहाँ नहीं होती, पर ये सब तुम्हारी तरफ़दारी में लग जाते हैं.
यूँ लगता है मानो, कि इस पूरी प्रकृति को तुमने मेरी पहरेदारी में लगा रखा है...

 कभी-कभी तो मैं भी खुद को एक कटघरे में खड़ा पाता हूँ.

सुनो...मुझे इनमें से किसी पर भी भरोसा नहीं।
तुम भी इनका ऐतबार मत करना।

मैं जानता हूँ कि एक चिड़िया की चोंच तक से उसकी उदासी पहचान लेने वाली तुम...इतनी निष्ठुर नहीं, कि मेरी संवेदनाएँ तुम तक न पहुँचती हों...

 #हीरेंद्र #एकप्रेमीकीडायरी

Sunday, April 12, 2020

जलियांवाला बाग नरसंहार की कहानी, इन तस्वीरों की ज़ुबानी #JallianwalaBaghmassacre


आज वैशाखी है. पंजाब और हरियाणा में इस पर्व की ख़ासी धूम रहती है. नयी फ़सल की आमद का यह जश्न हर साल इसी तारीख यानी 13 अप्रैल को ही मनाया जाता है.  लेकिन, यह तारीख इतिहास में भी अपनी एक अलग भयावहता के लिए अंकित है. जलियांवाला बाग नरसंहार के बारे में किसने नहीं सुना. आज से 101 साल पहले इसी दिन सारी दुनिया ने अंग्रेज़ों का एक क्रूर और अमानवीय चेहरा देखा था.






राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने रॉलेट एक्ट के विरोध में देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया था, जिसके बाद मार्च के अंत और अप्रैल की शुरुआत में देश के कई हिस्सों में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुए और उसका परिणाम 13 अप्रैल 1919 के नरसंहार के रूप में दिखा.

 देश के अधिकांश शहरों में 30 मार्च और 6 अप्रैल को देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया गया. हालांकि इस हड़ताल का सबसे ज़्यादा असर पंजाब में देखने को मिला. 13 अप्रैल को लगभग शाम के साढ़े चार बज रहे थे, जनरल डायर ने जलियांवाला बाग में मौजूद क़रीब 25 से 30 हज़ार लोगों पर गोलियां बरसाने का आदेश दे दिया. वो भी बिना किसी पूर्व चेतावनी के. ये गोलीबारी क़रीब दस मिनट तक बिना सेकंड रुके होती रही. जनरल डायर के आदेश के बाद सैनिकों ने क़रीब 1650 राउंड गोलियां चलाईं. गोलियां चलाते-चलाते चलाने वाले थक चुके थे और 379 ज़िंदा लोग लाश बन चुके थे. (अनाधिकारिक तौर पर कहा जाता है कि क़रीब एक हज़ार लोगों की मौत हुई थी और दो हज़ार से ज़्यादा लोग घायल हुए थे).




क्या आप जानते हैं 1997 में ब्रिटेन की महारानी एलिज़ाबेथ ने इस स्मारक पर मृतकों को श्रद्धांजलि दी थी। साल 2013 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरॉन भी इस स्मारक पर आए थे। विजिटर्स बुक में उन्होंनें लिखा कि "ब्रिटिश इतिहास की यह एक शर्मनाक घटना थी।

Monday, March 30, 2020

कोरोना डायरी #CoronaDiary

जीवन का हिसाब स्पष्ट है - खुश रहोगे तो खुशियां मिलेगी और दुखी रहोगे तो दर्द. यह बात समझने में कई बार हमें ज़िंदगी भर का सफर तय करना पड़ सकता है. लेकिन, इसके लिए ज़िंदगी हमें हर कदम पर मौके देती है, इशारे करती है. बस आपको सचेत रहना है और पूरी समग्रता से उन इशारों को समझना होता है.

यह लिखने में भले आसान हो पर इस पर अमल करना उतना सहज नहीं। हर इंसान का अपना अनुभव और दृश्टिकोण होता है. जिसमें तपकर हम किसी चीज़ के प्रति अपना एक नजरिया बनाते हैं. यह नजरिया उधार का तो बिलकुल भी नहीं हो सकता। कबीर ने कहा या बुद्ध ने कहा यही सोचकर कोई बात नहीं मान लेनी चाहिए। जब तक हम स्वयं उस अनुभूति से साक्षात्कार न कर लें दुनिया भर के दर्शन और साहित्य बेमानी हैं.

आप आँखें बंद करके खुद को टटोलिये कि आप इस जीवन से क्या चाहते हैं? अगर आप देख पायें तो आप खुशकिस्मत हैं क्योंकि दस में से नौ लोगों को तो यह बिलकुल भी नहीं मालूम होता कि वो इस जीवन से क्या चाहते हैं. इन दोनों तरह के लोगों को अलग-अलग तरीके से चीज़ों को समझना होगा। पहले वे लोग जो देख पा रहे हैं कि उन्हें इस जीवन से क्या चाहिए, वो बस उन्हीं पर अपना ध्यान केंद्रित रखें. क्योंकि जीवन बहुत ही विराट है- यहाँ थोड़ा-थोड़ा सब कुछ पा लेना भी आसान नहीं। और थोड़ा-थोड़ा पाकर भी आप बेचैन ही रहेंगे। जो भी पाना हो वो सम्पूर्णता के साथ पाना, तभी आप आनंदित हो सकते हैं. अगर आप स्पष्ट हैं कि आप को जीवन से क्या चाहिए तो आप यह समझ लें कि आपको बस उसी पर केंद्रित रहना है. व्यर्थ के प्रयासों में समय न गंवा दें. मान लीजिये कि आपको एक महाकाव्य रचना है तो बस आपका पूरा ध्यान इसी बिंदु पर होना चाहिए। सोते-जागते आप अपने महाकाव्य को साकार होते दिखे। अगर आपको अपने मन में महाकाव्य के पन्ने नज़र आने लगे तो समझो आपने महाकाव्य रच दिया। यह और भी बातों के लिए उतना ही सटीक है.

दूसरी बात कि आपको अभी भी नहीं मालूम कि आपको इस जीवन से क्या चाहिए। तो बेहतर है खुद के साथ ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त गुज़ारे। अपने आप को समझें। ह्रदय की गहराइयों में उत्तर कर खुद को देखें कि ऐसी कौन सी बात है जो आपको मिल जाए तो आप खुश हो जाएंगे। अगर आप ईमानदारी से खुद का मूल्यांकन करें तो इस बात की कोई भी वजह नहीं कि आप निरुत्तर रहे.

और जब एक बार आप समझ गए कि आपको इस जीवन से क्या चाहिए तब आगे का रास्ता स्वतः ही निर्मित होना शुरू हो जाता है. इस शोध के लिए यह 21 दिनों का लॉकडाउन बहुत ही कारगर है. यह मैं अपने अनुभव से कह रहा हूँ. जीवन में एक से ज़्यादा बार ऐसा हुआ है कि मैंने आत्महत्या करने का सोचा है. लेकिन, नहीं अब मैं समझ गया हूँ कि मरने से पहले ज़िंदगी एक बार जी ही लेनी चाहिए। इति शुभम!

हीरेंद्र झा

Thursday, March 26, 2020

#CoronaDiary #Day2

आज का दिन थोड़ा बेहतर गुज़रा और आज मैंने अगले 7 दिनों के लिए अपना रूटीन बना लिया है. उससे पहले आज कुछ काम को लेकर भी कुछ लोगों से बात हुई और इस दौरान यह तय हुआ कि कोरोना के इस लॉक डाउन का लाभ उठाकर कुछ प्रोजेक्ट के काम पूरे कर लिए जायें। संभवतः अब इस दिशा में भी काफी वाट लगने वाला है.

बहरहाल, आज दिन में ओशो के कुछ वीडियो सुने। ग्रेजुएशन के दौरान मैंने ओशो को खूब पढ़ा है और उसका मुझे लाभ  भी हुआ. लेकिन, अरसे से ओशो और उनकी बातें भूला सा था एक बार फिर उन लम्हों को जी रहा हूँ. मैंने अनुभव किया है कि संन्यास मेरा मूल स्वभाव है. इसलिए भी इस राह पर जाने से थोड़ा बचता हूँ. क्योंकि यह बहुत ही आसान है मेरे लिए. और अगर मैं इस राह पर बढ़ चला तो मुझसे जो लोग जुड़े हुए हैं उन्हें परेशानी हो सकती है. इसलिए कहीं न कहीं मन में यह रहता है कि इस संसार में एक संन्यासी की तरह क्यों न रहा जाए? मैं कुछ लिखता भी हूँ तो कई बार उस लिखे में मुझे वो दर्शन और पद्धति महसूस होती है.

जो मेरी अगले 7 दिन की दिनचर्या रहने वाली है. उसकी बात करूँ तो मैंने तय किया है कि अगले 7 दिनों तक मैं लगातार ध्यान की अवस्था में रहूँगा। यानी मेरा पूरा ध्यान मेरी साँस पर टिका होगा। उसके आने और जाने पर. भीतर गहरे तक साँस लूँगा। ज़्यादा से ज़्यादा प्राणवायु मेरे भीतर जाए इसका ख़्याल रखूंगा। साँस के अलावा मैं अगले सात दिनों तक भोजन को लेकर ज़्यादा नहीं सोचने वाला। जितने कम में काम चल जाए बस उतना ही भोजन करूँगा। जीवन के लिए जितना ज़रूरी हो सिर्फ उतना खाऊंगा। जो भी करूँगा एकाग्रचित्त होकर करूँगा। एकाग्रता के लिए सबसे सहज और हितकर मार्ग यही है कि आप अपने साँसों पर ध्यान बनाकर रखें। इसके अलावा कुछ और काम करने पड़े जैसे नहाना, भोजन आदि तो वह भी पूरी एकाग्रता के साथ किया जाए.

इन तीनों बातों के अलावा चौथी बात जिसका मुझे ध्यान रखना है, वो है -मौन. मेरी कोशिश रहेगी कि मैं 24 घटे मन, वचन और विचार से मौन रहूं। कोई आफत ही आ जाए तो दो, चार शब्द बोलकर या कागज़ पर लिख कर काम चल जाए तो यह कर लूँ. यह कठिन है पर इसका अपना ही आनंद है. सिर्फ बोलना ही बंद नहीं करना है बल्कि देखना और सुनना भी न्यूनतम कर देना। ज़्यादातर वक़्त मेरे आँखों पर इस दौरान पट्टी बंधा होगा और मैं पूरी तरह से सिर्फ ध्यान में रहने का प्रयास करूँगा। आखिरी बात यह समय मैं किसी मजबूरी में नहीं करूँगा, बल्कि पूरे आनंद भाव से करने वाला हूँ. मुझे कुछ याद नहीं कि कोरोना की वजह से पूरे देश में बंद की स्तिथि है. मैं घर से बाहर नहीं निकल सकता। कि मैं सबसे दूर यहाँ मुंबई में अकेले हूँ. मुझे बस इतना याद है कि मैं सुख और आनंद में हूँ और इस समय को एक अवसर की तरह देख रहा हूँ. फिर जीवन में मुझे यह सात दिनों का विशेष ध्यान करने का अवसर न मिले तो क्यों न इस समय का लाभ उठा लूँ. कुछ बहुत ज़रूरी कोई फोन आ गया (काम के सिलसिले में) तो उस तरह के फोन मैं ज़रूर उठाऊंगा और कुछ लिखना हुआ तो वो भी करूँगा। लेकिन, अगर ऐसा न हुआ तो वो और भी अच्छा। अपने अनुभव मैं आप सबको ब्लॉग पर बताता रहूँगा।

- हीरेंद्र झा

Wednesday, March 25, 2020

#CoronaDiary Day1

हालांकि मुंबई में शनिवार 21 मार्च से ही कर्फ्यू लग गया था और आज यानी 25 मार्च से तो देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा हो ही चुकी है. कोरोना से बचने का यह सबसे आसान और कारगर उपाय है. ऐसे में पूरा देश इस वक़्त अपने-अपने घरों में है और पूरे २१ दिनों तक उन्हें ऐसे ही रहना है.

घर-परिवार से दूर अकेले मुंबई में अपने एक छोटे से कमरे में हूँ. मैं बिना लाग-लपेट के यह कहना चाहता हूँ कि यह एक बड़ी मुश्किल समय है. मैंने अपने पूरे जीवन में ऐसा समय नहीं देखा। घर-परिवार और अपनों के साथ 21 तो क्या मैं सौ दिन भी बिना किसी परेशानी के घर पर रह सकता हूँ. पर ऐसे अकेले यह मेरे लिए भी एक रहस्य ही होगा जो मैं 21 दिनों तक बचा रह गया.

देश के अलग-अलग हिस्सों से कुछ तस्वीरें आ रही हैं, जिनमें इक्का-दुक्का लोग सड़क पर मास्क पहने घुमते दिख रहे हैं. ज़रूरी सेवा देने वाले जैसे पुलिस, डॉक्टर्स, बैंकर्स और पत्रकार आदि वैसे भी घरों से निकल रहे हैं. यहाँ एक बात मैं जोड़ना चाहूँगा कि मुंबई में मैं जिस सोसायटी में रह रहा हूँ, यहाँ मेन गेट पर ताला लगा दिया गया है और आपातकालीन स्तिथि में ही किसी को बाहर निकलने की इज़ाज़त है. यह नियम बना दिया गया है कि सुबह आठ बजे से लेकर नौ बजे तक मेन गेट खोला जाएगा और आप इसी दौरान अपने खाने-पीने की ज़रूरी चीज़ें लेकर आ सकते हैं. शुक्र है कम से कम यह एक अच्छी बात है.

बहरहाल, खाने-पीने का मैंने कुछ यह सोचा है कि चूड़ा, चना, मूंगफली, चावल-दाल जो सहज और आसानी से बन जाए, उसी में किसी तरह यह दिन बीता देना है. ज़्यादा खाने-पीने के चक्कर में नहीं रहना है. एक वक़्त भी पेट भर कर खा लिया तो अगले दिन तक छुट्टी। तो भोजन को लेकर मैं बहुत ज़्यादा चिंतित नहीं हूँ. मेरी चिंता थोड़ी अलग है.

मन में यह ज़रूर आता है कि जीवन में ऐसा कभी कठिन समय आये तो इंसान को अपने परिवार के साथ होना चाहिए। एकजुट होकर एक दूसरे को सहारा देते हुए हम इस तरह के हालातों से निकल सकते हैं. मेरे साथ वर्तमान में ऐसे हालात हैं कि बुजुर्ग माता-पिता धनबाद में है. उनका पूरा समय घर पर ही बीतता है. मेरी एक दीदी अपने परिवार के साथ वहां है, जो उनका ख़्याल रख रही हैं. बाबूजी रोज़ बिना नागा एक बार कॉल ज़रूर कर लेते हैं और मेरी आवाज़ सुनकर बुलंद हो जाते हैं. पत्नी है जो अपने मायके यानी लखनऊ में रहती है. आठ  साल की प्यारी बिटिया ख़ुशी भी अपनी मम्मी के साथ वहीं रह रही है. मेरे साथ संयोग कुछ ऐसा रहा कि कभी बिटिया के साथ रहने का मौका मुझे नहीं मिला है. वो नानी के घर ही जन्मीं और वहीं देखते-देखते आठ बरस की हो गयी हमारी लाड़ो। उसे फोन पर बात करना पसंद नहीं इसलिए मेरी उससे न के बराबर बातचीत होती है. बीते एक साल में हम चार बार मिले हैं और कुल मिलाकर आठ दस दिन हमने साथ बिताये होंगे। पत्नी का रूटीन कुछ इस तरह का है कि उसके पास बिल्कुल भी फुर्सत नहीं। स्टेट बैंक की नौकरी के बाद जो वक़्त उसे मिलता है उसपर उसकी बीमार माँ और प्यारी बिटिया का अधिकार है. उसकी मम्मी यानी मेरी सास का लीवर काफी हद तक डैमेज हो चुका है और उनकी हालत काफी गंभीर रहती है. कई बार उन्हें इलाज के लिए लखनऊ से लेकर दिल्ली भागना होता है. ऐसे में हम दोनों पति-पत्नी के बीच कई बार सप्ताह भर भी बात नहीं हो पाती। मैं उसे बहुत मिस भी करता हूँ. पर शायद यही नियति है और किसी तरह यहाँ मुंबई में जीने की कोशिश कर रहा हूँ.

सामान्य दिनों में काम में उलझ कर दिन बीत जाया करता है पर ऐसे लॉक डाउन के समय में मेरी बेचैनी का बढ़ना वाजिब ही है. दिन भर घर पर अकेले क्या और कैसे किया जाए, आसान नहीं। न किसी अपने से कोई संवाद ही है और न ही एक पारस्परिक सहयोग वाली बातचीत कि जिसके सहारे आप अपना समय काट सकें। थक-हार कर मेरे पास यही विकल्प है कि - कितने पढूं, फ़िल्में देखूँ और लिखूँ। लिखकर बेचैनी मेरी थोड़ी कम होती रही है.

तो मैंने सोचा क्यों न इस लॉक डाउन में रोज़ अपने ब्लॉग पर #CoronaDiary लिखूं। इसी बहाने अगर मैं ज़िंदा बचा रहा तो आज से दस-बीस साल बाद भी यह समय याद रह जाएगा। तो इस कड़ी में यह दूसरी पोस्ट है. कल भी मैंने कोरोनो पर कुछ लिखा है और आज भूमिका बांधते हुए आप सभी को अपनी मानसिक और व्यावहारिक स्थिति बता दी है.

आज यू tube पर अमोल पालेकर और विद्या सिन्हा की फिल्म 'छोटी सी बात' फिर से देखी। बेहद मासूम सी फिल्म है. उसके बाद संदीप माहेश्वरी के कुछ वीडियो सुनते हुए बर्तन भी धोये। और अब सोचा सोने से पहले यह पोस्ट लिख ही दूँ. वैसे अभी रात के सिर्फ दस ही बजे हैं. कल भी तीन बजे के बाद ही सोया था और आज भी देर होगी ही. देखते हैं यह दिन अपने आखिरी घंटे में कैसा रहता है. अब रफ़ी के गीत सुन रहा हूँ. पूरी प्लानिंग कर ली है कि कल से मेरा रूटीन क्या रहने वाला है. वो सब कल लिखता हूँ. अगर आप यह पोस्ट पढ़ पा रहे हैं तो यही कहूंगा कि घर पर ही रहे, बाहर न निकले. अपना ख़्याल रखें। हाथ धोते रहे. और यह सब किसलिए? देश ही नहीं मानवता के लिए भी. जी! शुक्रिया।

आपका हीरेंद्र

Tuesday, March 24, 2020

#कोरोनाडायरी #Corona #Covid19

मुंबई में अपने कमरे में हूँ। अकेले। शनिवार से ही यहाँ कर्फ़्यू सा माहौल है। ऐसे समय में लगता है कि काश घर, परिवार के साथ होते! बाबूजी से किस्से सुनते, माँ के पैर दबाते या बिटिया संग लुडो खेलते या फिर उसकी मम्मी को कविताएं सुनाते, गीत गाते। पूरे घर की सफाई खुद करते। बर्तन धोते, खाना बनाते। 'बावर्ची' वाला राजेश खन्ना बन जाते 😊 और कभी-कभी दरवाज़े पर खड़े होकर रास्ते से गुज़रने वाले हर व्यक्ति को हाथ जोड़ कर कहते - घर जा भाई, न तो मर जायेगा



हकीकत तो यही है कि मुंबई में हूँ और अकेले हूँ। दुनिया भर की ख़बरों पर नज़र है। कोरोना वायरस से संक्रमित मरीजों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। यही हालात रहे तो स्तिथि बेहद खतरनाक भी हो सकती है। ऐसा कुछ न हो इसके लिए सिर्फ प्रार्थनायें ही की जा सकती हैं। अपने देश में स्वास्थ्य सुविधाओं का ढांचा इतना लचर है कि इस तरह की आपदा के लिए हम बिल्कुल भी तैयार नहीं। फिलहाल जितना हो सके अपने-अपने घरों पर रहिये और हाथ धोते रहिये इस निर्देश का पालन यथासंभव देशवासी कर रहे हैं। सोशल मीडिया पर भी कोरोना को लेकर भावुकता, जागरूकता, सतर्कता और अफ़वाहों का मिलाजुला मॉडल दिख रहा है। ज़्यादातर लोग आशावादी हैं और एक दूसरे को ख़्याल रखने के लिए कह रहे हैं। तमाम बॉलीवुड स्टार्स और सेलिब्रिटी लगातार लाइव आकर जनता को जागरूक करने का काम कर रहे हैं।

अपने घर पर बैठा मैं सबको चुपचाप देख-सुन रहा हूँ। आप सबकी तरह मैं भी अपने परिजनों को लेकर फ़िक्रमंद हूँ और लगातार सबसे बातचीत हो जा रही है। फोन पर माँ-बाबूजी रोज़ बिना नागा हाल-चाल ले लेते हैं। कुछ दोस्त रिश्तेदारों से कई बार लंबी बातचीत भी हो रही है। आख़िर इतनी फुर्सत आसानी से हमारे हिस्से आता भी तो नहीं।

 जब से लॉक-डाउन और कर्फ्यू की ख़बरें आनी शुरू हुई, उससे पहले से ही लोग अपने-अपने घरों में राशन आदि ज़रूरत का सामान जमा करने लगे। उन्होंने जैसे मान ही लिया था कि दुनिया जैसे ख़त्म हो रही है और वो जितना हो सकता है उतना भर कर रख लें। ऐसे देशभक्तों को क्या ही कहा जाए? लेकिन, दूसरी तरफ ऐसे लोग भी दिखे जो आम लोगों को ज़रूरत का सभी सामान उपलब्ध कराने के प्रयास में भी जुट गए हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरबिंद  केजरीवाल के आह्वान पर कई लोगों ने यह जिम्मेदारी ली है कि उनके इलाके में कोई भूखा नहीं रहेगा। यह एक अच्छी पहल है। आज महाराष्ट्र से 12 मरीजों के ठीक होने की ख़बर भी आयी है, यह भी एक सुखद समाचार है।

गौरतलब है कि कोरोना वायरस बुजुर्गों और उन लोगों के लिए ज़्यादा खतरनाक है जिनकी प्रतिरोधक क्षमता कमजोर है। ऐसे में इन लोगों का ध्यान रखने के लिए हम सबको अपना-अपना बचाव करना होगा।

इंसान बहुत जल्दी में है। भागते-भागते आज वो उस मुकाम पर है जहाँ उसने अपने लिए एक ऐसी दुनिया रच ली है जहाँ खड़े होकर आधुनिकता इतराया करती है। लेकिन, इन सबके बीच हम भूल गए हैं कि इस ब्रह्माण्ड में सिर्फ इंसान ही नहीं दूसरे जीव-जंतु भी रहते हैं। प्रकृति एक दिन सबकुछ अपने हिसाब से कर लेती है। उसे संतुलन बनाना आता है। इस बार भागती जा रही मनुष्यता को उसने ठहर कर सोचने पर मजबूर कर दिया है। कि एक पल रुक कर हम सोचें कि क्या हमें हमारे किये की सज़ा मिल रही है?

क्या इस संकट से उबरने के बाद यह दुनिया थोड़ी बदल जायेगी? क्या हम सब एक इंसान के रूप में थोड़े बेहतर हो सकेंगे? अगर इसका जवाब हाँ है तो इसकी शुरुआत अभी से करनी होगी। और वो आप अपना ख़्याल रख कर घर बैठे-बैठे ही कर सकते हैं। 


 #कोरोनाडायरी1  #Corona #Covid19 #India #Humanity #Lockdown

Saturday, March 21, 2020

वो ख़ुदा को आवाज़ लगाती रही #हीरेंद्र







हर बात वो मुझसे छिपाती रही
सुबह आती रही शाम जाती रही
उलझनें ऐसे में क्या सुलझती भला
उसकी आँखें ही जब उलझाती रही
मेरा गीत क़ैद रहा मेरे कंठ में
और ज़िंदगी मुझे गुनगुनाती रही
हम मिलेंगे ज़रूर ये वादा देकर
मेरे सब्र को वो आजमाती रही
हम इंतज़ार में उसके बैठे रहे
वो ख़ुदा को आवाज़ लगाती रही। #हीरेंद्र

Wednesday, March 18, 2020

#कोरोना के साइड इफेक्ट्स

#कोरोना के साइड इफेक्ट्स कुछ ऐसे हैं कि पिछले 8 दिनों से न तो मैंने किसी को छुआ है और न ही किसी ने मुझे ही। हालांकि, यह आसान नहीं।
बहरहाल, इस दौरान मैंने यह अनुभव किया कि 'स्पर्श' मानव जाति की एक बड़ी थाती है, एक बड़ी आश्वस्ति है।
किसी को गले से लगाकर, किसी की हथेली थामकर, किसी की पीठ थपथपाकर, किसी के सिर या कांधे पर हाथ रखते हुए ही मनुष्यता ने इस दुनिया को बचाया हुआ है।
आइये ब्रह्मांड से यह प्रार्थना करें कि हर तरफ शुभ संदेश फैले। इस पोस्ट के साथ मेरी तरफ से आभासी ही सही पर एक जादू की झप्पी स्वीकार करें। आज बस इतना ही। शेष मिलने पर 💐#हीरेंद्र

Saturday, March 14, 2020

पत्रकारिता आपको एक बेहतर इंसान बनाती है: सर्वप्रिया सांगवान



सर्वप्रिया सांगवान देश की उभरती हुई महिला पत्रकारों में से हैं, जिन्होंने बहुत ही कम समय में राष्ट्रीय स्तर पर अपनी एक मजबूत पहचान बना ली है। एनडीटीवी इंडिया में लगभग छह साल काम करने के बाद वर्तमान में बीबीसी हिंदी से जुड़ी हुई हैं। सरोकारी पत्रकारिता को लेकर गंभीर सर्वप्रिया को इसी साल पत्रकारिता का सबसे प्रतिष्ठित रामनाथ गोयनका अवॉर्ड से सम्मानित किया  गया है। सोशल मीडिया पर भी वो बेहद सक्रिय और लोकप्रिय हैं। उनकी यात्रा, करियर आदि विषयों पर आधी आबादी पत्रिका के सहायक संपादक हीरेंद्र झा ने उनसे लंबी बातचीत की। प्रस्तुत हैं बातचीत के कुछ अंश-


हीरेंद्र: जब आप अपने बचपन को याद करती हैं तो पहली चीज़ क्या याद आती है आपको

सर्वप्रिया: बचपन के दिनों को जब मैं याद करती हूँ तो मुझे एक चीज़ जो साफ़ तौर से याद है कि मैं खूब डांस करती थी। तीन साल की उम्र से ही मैं स्टेज पर परफॉर्म करने लगी थी। मुझे कई अवॉर्ड्स और ट्रॉफियां मिलीं। मुझे राजीव गाँधी स्कॉलरशिप भी मिला था 1994 में। मैं हरियाणा से तीन बार चैंपियन रही। तो मेरा बचपन ज़्यादातर डांस करते और अवार्ड्स लेते हुए ही बीता है।

हीरेंद्र: घर में कैसा माहौल था?

सर्वप्रिया: जब मैंने होश संभाला तब मैं सोनीपत में अपने नाना-नानी के पास ही रहती थी। मम्मी-पापा अपने जीवन की संघर्षों में व्यस्त थे। वो रोहतक में रहते थे। फिर मेरा भाई भी आ गया और हम दोनों भाई बहन नाना नानी के यहाँ ही रहे। लगभग 7 साल की उम्र तक मैं नाना-नानी के साथ ही रही। नाना ने ही मुझे स्टेज और डांस जैसी चीज़ों के लिए प्रोत्साहित किया। मम्मी महीने में एक दो बार ही आती थीं। सब अच्छा ही था, जितना मुझे याद है।

हीरेंद्र: पढ़ाई-लिखाई कहाँ हुई आपकी?

सर्वप्रिया: जब मैं रोहतक आयी तब मैं ज्योति प्रकाश स्कूल में पढ़ती थी। वहां मैं छठी क्लास तक पढ़ी। फिर मैं यूनिवर्सिटी कैम्पस स्कूल में चली गयी तो बारहवीं तक वहां रही। मैं एक एवरेज स्टूडेंट रही हूँ। आप कह सकते हैं मैं गणित से थोड़ा दूर भागती थी। लेकिन, मुझे यह अब समझ आ गया है कि मैं खराब स्टूडेंट नहीं थी बल्कि मुझे अच्छे टीचर्स नहीं मिले मैथ्स के। स्कूलिंग के दौरान पढ़ाई- लिखाई के अलावा तमाम सांस्कृतिक गतिविधियों में भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती थी। डांस के अलावा सिंगिंग और ड्रॉइंग में भी रूचि रखती थी। खेल कूद में भी लगातार भाग लेती रहती थी।

हीरेंद्र: डेंटिस्ट फिर कैसे बनी?

सर्वप्रिया: मैंने  ग्यारहवीं क्लास में बॉयोलॉजी लिया था तब इतना नहीं क्लियर था कि मुझे डॉक्टर ही बनना था। लेकिन, बॉयो के स्टूडेंट के लिए तब यही एक विकल्प होता था। मुझे साइंस में रूचि भी थी। फिर पैरेंट्स ने जो दिशा दिखाई उसी तरह मैं आगे बढ़ी। पहले प्री मेडिकल टेस्ट क्लियर किया फिर बीडीएस (बैचलर ऑफ़ डेंटल सर्जरी) में दाखिला हो गया। वहां भी बहुत मज़ा आया। उसके बाद सरकारी अस्पताल में काम करने के दौरान यह महसूस हुआ कि सरकारी जॉब ही करनी है क्योंकि यहाँ एक मौका होता है कि आप किसी गाँव में पोस्टेड होते हैं जहाँ वास्तव में आपकी ज़रूरत होती है। ये नहीं कि आप खुद ही कोई क्लिनिक खोल लें और इसे बिजनेस की तरह करने लगे।

हीरेंद्र: पत्रकारिता से कैसे रिश्ता बना आपका?

सर्वप्रिया: मेरे पापा श्री सर्व दमन सांगवान प्रिंट पत्रकारिता में लंबे समय तक जुड़े रहे। जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा, पंजाब केसरी जैसे संस्थानों में काम किया। साल 2002 के बाद उन्होंने अपना फील्ड बदला। लेकिन, उनको देखते हुए यह मुझे कभी नहीं लगा कि मुझे भी पत्रकारिता करनी है। बहरहाल, 2011 में जब मेरा बीडीएस पूरा होने वाला था उसी दौरान पापा ने मुझे एनडीटीवी मीडिया संस्थान का एक विज्ञापन दिखाया, मॉस मीडिया डिप्लोमा कोर्स के लिए तो फिर यह एक टर्निंग पॉइंट रहा और मैं एनडीटीवी आ गयी। फिर पढ़ाई के बाद वहीं जॉब भी मिल गयी।

 


हीरेंद्र: एनडीटीवी में आप प्राइमटाइम रिसर्च टीम में रहीं, रवीश के साथ काम करते हुए कैसा अनुभव रहा?

सर्वप्रिया: छह साल एनडीटीवी में रवीश के साथ काम करने का मौका मिला और मुझे लगता है मैंने उनसे पत्रकारिता से ज़्यादा एथिक्स सीखे हैं। इंसानियत ज़्यादा सीखी है। मैंने अनुभव किया कि वो अपने आस-पास के लोगों को काफी बढ़ावा देते हैं, उनमें किसी भी तरह की असुरक्षा की भावना नहीं है। वो मीडिया एथिक्स काफी फॉलो करते हैं। तो स्वाभाविक तौर पर असर तो पड़ता है। मैं एनडीटीवी आने से पहले बिल्कुल अलग तरह की इंसान थी और अभी भी मुझे लगता है कि अगर मैं पत्रकारिता में नहीं आती तो मैं काफी अलग होती। आज मुझे लगता है कि मैं सच्चाई के ज़्यादा करीब हूँ और चीज़ों को ज़्यादा बेहतर तरीके से देख-समझ पाती हूँ और ज़्यादा सेंसिटिव हुई हूँ। एनडीटीवी में काफी अच्छा माहौल रहा और वहां लड़कियों की तादाद ज़्यादा थी और वहाँ काम करते हुए हमें ऐसा लगता है कि संस्थान को हमारी ज़रूरत है। मैं कई मुद्दों पर अपने सीनियर्स से बहस भी करती थी और कभी किसी ने रोका-टोका नहीं। हमेशा प्रोत्साहित ही किया।

हीरेंद्र: तो उसी दौरान आपने फिर लॉ की पढ़ाई भी की?

सर्वप्रिया: लॉ में मुझे हमेशा से एक दिलचस्पी रही है। और मैं समझती हूँ एक पत्रकार के लिए लॉ और इकोनॉमिक्स का ज्ञान बहुत ज़रूरी है। फ्यूचर भी इसी का है। मुझे लगा लॉ मेरे पत्रकारिता के करियर में भी काफी सहायक साबित होगा इसलिए मैंने उसकी भी पढ़ाई कर ली।

हीरेंद्र: एनडीटीवी के बाद बीबीसी?

सर्वप्रिया: जी मैं सितंबर 2017 में बीबीसी से जुड़ी।

हीरेंद्र: एंकरिंग, रिपोर्टिंग के साथ इंटरव्यू भी करती हैं आप, सबसे ज़्यादा मज़ा किसमें आता है आपको?

सर्वप्रिया: देखिये यह सब मेरे काम का हिस्सा है। मुझे इन सब चीज़ों में एक सा सुख मिलता है। मैं इन्हें अलग करके नहीं देख पाती। मैं समझती हूँ कि मैं जो भी करूँ पूरी ईमानदारी से करूँ।

हीरेंद्र: रामनाथ गोयनका अवॉर्ड आपको किस स्टोरी पर मिला और इस अवॉर्ड के बाद कितनी बदली आपकी ज़िंदगी?

सर्वप्रिया: जादूगोड़ा में यूरेनियम माइनिंग होती है और 1969 से यह लगातार जारी है।  हुआ ये कि उसके बाद से वहां लोगों में जेनेटिक प्रॉब्लम होने लगी ख़ास कर बच्चों में। रेडिएशन की वजह से कैंसर जैसी बीमारियों के अलावा आम लोगों में कई तरह की स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं देखी गयीं। इस पर पहले भी स्टोरी होती रही हैं। लेकिन, कुछ ख़ास हो नहीं पाया। क्योंकि एटोमिक इनर्जी का विभाग सीधे पीएमओ के अधीन आता है और कोई इसकी परवाह नहीं करता। तो हमने भी इस पर स्टोरी की और उसी स्टोरी पर हमें यह अवॉर्ड मिला और अभी तो सिर्फ एक महीना ही हुआ है और न ही मेरी ज़िंदगी बदली है और न ही उन लोगों की  जिनके लिए मैंने यह स्टोरी की। लेकिन, इतना है कि आपको एक मोटिवेशन तो मिलता ही है कि अच्छे काम की जगह है आज भी।

 

हीरेंद्र: नयी लड़कियों के लिए क्या संदेश देंगी आप?

सर्वप्रिया: अगर आप अपने आप को एक बेहतर इंसान बनाना चाहती  हैं तो आपको मीडिया में ज़रूर आना चाहिए। ऐसा कहा जाता है कि मीडिया लड़कियों के लिए सुरक्षित नहीं है तो मैं कहना चाहूँगी कि सेफ़ तो आप कहीं भी नहीं हैं। 





साभार: आधी आबादी, मार्च अंक

#SarvpriyaSangwan #RamnathgoenkaAward #BBC #NDTV #HirendraJha

विदा 2021

साल 2021 को अगर 364 पन्नों की एक किताब मान लूँ तो ज़्यादातर पन्ने ख़ुशगवार, शानदार और अपनों के प्यार से महकते मालूम होते हैं। हिसाब-किताब अगर ...