Sunday, May 01, 2011

छोटा जादूगर - जयशंकर प्रसाद की कहानी

जयशंकर प्रसाद


कार्निवल के मैदान में बिजली जगमगा रही थी। हँसी और विनोद का कलनाद गूँज रहा था। मैं खड़ा था। उस छोटे फुहारे के पास, जहाँ एक लडक़ा चुपचाप शराब पीनेवालों को देख रहा था। उसके गले में फटे कुरते के ऊपर से एक मोटी-सी सूत की रस्सी पड़ी थी और जेब में कुछ ताश के पत्ते थे। उसके मुँह पर गम्भीर विषाद के साथ धैर्य की रेखा थी। मैं उसकी ओर न जाने क्यों आकर्षित हुआ। उसके अभाव में भी सम्पूर्णता थी। मैंने पूछा-‘‘क्यों जी, तुमने इसमें क्या देखा?’’
‘‘मैंने सब देखा है। यहाँ चूड़ी फेंकते हैं। खिलौनों पर निशाना लगाते हैं। तीर से नम्बर छेदते हैं। मुझे तो खिलौनों पर निशाना लगाना अच्छा मालूम हुआ। जादूगर तो बिलकुल निकम्मा है। उससे अच्छा तो ताश का खेल मैं ही दिखा सकता हूँ।’’- उसने बड़ी प्रगल्भता से कहा। उसकी वाणी में कहीं रुकावट न थी।
मैंने पूछा-‘‘और उस परदे में क्या है? वहाँ तुम गये थे।’’
‘‘नहीं, वहाँ मैं नहीं जा सका। टिकट लगता है।’’
मैंने कहा-‘‘तो चल, मैं वहाँ पर तुमको लिवा चलूँ।’’ मैंने मन-ही-मन कहा-‘‘भाई! आज के तुम्हीं मित्र रहे।’’
उसने कहा-‘‘वहाँ जाकर क्या कीजिएगा? चलिए, निशाना लगाया जाय।’’
मैंने सहमत होकर कहा-‘‘तो फिर चलो, पहिले शरबत पी लिया जाय।’’ उसने स्वीकार-सूचक सिर हिला दिया।
मनुष्यों की भीड़ से जाड़े की सन्ध्या भी वहाँ गर्म हो रही थी। हम दोनों शरबत पीकर निशाना लगाने चले। राह में ही उससे पूछा-‘‘तुम्हारे और कौन हैं?’’
‘‘माँ और बाबूजी।’’
‘‘उन्होंने तुमको यहाँ आने के लिए मना नहीं किया?’’
‘‘बाबूजी जेल में है।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘देश के लिए।’’-वह गर्व से बोला।
‘‘और तुम्हारी माँ?’’
‘‘वह बीमार है।’’
‘‘और तुम तमाशा देख रहे हो?’’
उसके मुँह पर तिरस्कार की हँसी फूट पड़ी। उसने कहा-‘‘तमाशा देखने नहीं, दिखाने निकला हूँ। कुछ पैसे ले जाऊँगा, तो माँ को पथ्य दूँगा। मुझे शरबत न पिलाकर आपने मेरा खेल देखकर मुझे कुछ दे दिया होता, तो मुझे अधिक प्रसन्नता होती।’’
मैं आश्चर्य से उस तेरह-चौदह वर्ष के लड़के को देखने लगा।
‘‘हाँ, मैं सच कहता हूँ बाबूजी! माँ जी बीमार है; इसलिए मैं नहीं गया।’’
‘‘कहाँ?’’
‘‘जेल में! जब कुछ लोग खेल-तमाशा देखते ही हैं, तो मैं क्यों न दिखाकर माँ की दवा करूँ और अपना पेट भरूँ।’’
मैंने दीर्घ निश्वास लिया। चारों ओर बिजली के लट्टू नाच रहे थे। मन व्यग्र हो उठा। मैंने उससे कहा-‘‘अच्छा चलो, निशाना लगाया जाय।’’
हम दोनों उस जगह पर पहुँचे, जहाँ खिलौने को गेंद से गिराया जाता था। मैंने बारह टिकट खरीदकर उस लड़के को दिये।
वह निकला पक्का निशानेबाज। उसका कोई गेंद खाली नहीं गया। देखनेवाले दंग रह गये। उसने बारह खिलौनों को बटोर लिया; लेकिन उठाता कैसे? कुछ मेरी रुमाल में बँधे, कुछ जेब में रख लिए गये।
लड़के ने कहा-‘‘बाबूजी, आपको तमाशा दिखाऊँगा। बाहर आइए, मैं चलता हूँ।’’ वह नौ-दो ग्यारह हो गया। मैंने मन-ही-मन कहा-‘‘इतनी जल्दी आँख बदल गयी।’’
मैं घूमकर पान की दूकान पर आ गया। पान खाकर बड़ी देर तक इधर-उधर टहलता देखता रहा। झूले के पास लोगों का ऊपर-नीचे आना देखने लगा। अकस्मात् किसी ने ऊपर के हिंडोले से पुकारा-‘‘बाबूजी!’’
मैंने पूछा-‘‘कौन?’’
‘‘मैं हूँ छोटा जादूगर।’’


कलकत्ते के सुरम्य बोटानिकल-उद्यान में लाल कमलिनी से भरी हुई एक छोटी-सी-झील के किनारे घने वृक्षों की छाया में अपनी मण्डली के साथ बैठा हुआ मैं जलपान कर रहा था। बातें हो रही थीं। इतने में वही छोटा जादूगर दिखाई पड़ा। हाथ में चारखाने की खादी का झोला। साफ जाँघिया और आधी बाँहों का कुरता। सिर पर मेरी रुमाल सूत की रस्सी से बँधी हुई थी। मस्तानी चाल से झूमता हुआ आकर कहने लगा-
‘‘बाबूजी, नमस्ते! आज कहिए, तो खेल दिखाऊँ।’’
‘‘नहीं जी, अभी हम लोग जलपान कर रहे हैं।’’
‘‘फिर इसके बाद क्या गाना-बजाना होगा, बाबूजी?’’
‘‘नहीं जी-तुमको....’’, क्रोध से मैं कुछ और कहने जा रहा था। श्रीमती ने कहा-‘‘दिखलाओ जी, तुम तो अच्छे आये। भला, कुछ मन तो बहले।’’ मैं चुप हो गया; क्योंकि श्रीमती की वाणी में वह माँ की-सी मिठास थी, जिसके सामने किसी भी लड़के को रोका जा नहीं सकता। उसने खेल आरम्भ किया।
उस दिन कार्निवल के सब खिलौने उसके खेल में अपना अभिनय करने लगे। भालू मनाने लगा। बिल्ली रूठने लगी। बन्दर घुड़कने लगा।
गुडिय़ा का ब्याह हुआ। गुड्डा वर काना निकला। लड़के की वाचालता से ही अभिनय हो रहा था। सब हँसते-हँसते लोट-पोट हो गये।
मैं सोच रहा था। बालक को आवश्यकता ने कितना शीघ्र चतुर बना दिया। यही तो संसार है।
ताश के सब पत्ते लाल हो गये। फिर सब काले हो गये। गले की सूत की डोरी टुकड़े-टुकड़े होकर जुट गयी। लट्टू अपने से नाच रहे थे। मैंने कहा-‘‘अब हो चुका। अपना खेल बटोर लो, हम लोग भी अब जायँगे।’’
श्रीमती जी ने धीरे से उसे एक रुपया दे दिया। वह उछल उठा।
मैंने कहा-‘‘लड़के!’’
‘‘छोटा जादूगर कहिए। यही मेरा नाम है। इसी से मेरी जीविका है।’’
मैं कुछ बोलना ही चाहता था कि श्रीमती ने कहा-‘‘अच्छा, तुम इस रुपये से क्या करोगे?’’
‘‘पहले भर पेट पकौड़ी खाऊँगा। फिर एक सूती कम्बल लूँगा।’’
मेरा क्रोध अब लौट आया। मैं अपने पर बहुत क्रुद्ध होकर सोचने लगा-‘ओह! कितना स्वार्थी हूँ मैं। उसके एक रुपये पाने पर मैं ईष्र्या करने लगा था न!’’
वह नमस्कार करके चला गया। हम लोग लता-कुञ्ज देखने के लिए चले।
उस छोटे-से बनावटी जंगल में सन्ध्या साँय-साँय करने लगी थी। अस्ताचलगामी सूर्य की अन्तिम किरण वृक्षों की पत्तियों से विदाई ले रही थी। एक शान्त वातावरण था। हम लोग धीरे-धीरे मोटर से हावड़ा की ओर आ रहे थे।
रह-रहकर छोटा जादूगर स्मरण होता था। सचमुच वह एक झोपड़ी के पास कम्बल कन्धे पर डाले खड़ा था। मैंने मोटर रोककर उससे पूछा-‘‘तुम यहाँ कहाँ?’’
‘‘मेरी माँ यहीं है न। अब उसे अस्पताल वालों ने निकाल दिया है।’’ मैं उतर गया। उस झोपड़ी में देखा, तो एक स्त्री चिथड़ों से लदी हुई काँप रही थी।
छोटे जादूगर ने कम्बल ऊपर से डालकर उसके शरीर से चिमटते हुए कहा-‘‘माँ।’’
मेरी आँखों से आँसू निकल पड़े।


बड़े दिन की छुट्टी बीत चली थी। मुझे अपने आफिस में समय से पहुँचना था। कलकत्ते से मन ऊब गया था। फिर भी चलते-चलते एक बार उस उद्यान को देखने की इच्छा हुई। साथ-ही-साथ जादूगर भी दिखाई पड़ जाता, तो और भी..... मैं उस दिन अकेले ही चल पड़ा। जल्द लौट आना था।
दस बज चुका था। मैंने देखा कि उस निर्मल धूप में सड़क के किनारे एक कपड़े पर छोटे जादूगर का रंगमंच सजा था। मोटर रोककर उतर पड़ा। वहाँ बिल्ली रूठ रही थी। भालू मनाने चला था। ब्याह की तैयारी थी; यह सब होते हुए भी जादूगर की वाणी में वह प्रसन्नता की तरी नहीं थी। जब वह औरों को हँसाने की चेष्टा कर रहा था, तब जैसे स्वयं कँप जाता था। मानो उसके रोएँ रो रहे थे। मैं आश्चर्य से देख रहा था। खेल हो जाने पर पैसा बटोरकर उसने भीड़ में मुझे देखा। वह जैसे क्षण-भर के लिए स्फूर्तिमान हो गया। मैंने उसकी पीठ थपथपाते हुए पूछा-‘‘आज तुम्हारा खेल जमा क्यों नहीं?’’
‘‘माँ ने कहा है कि आज तुरन्त चले आना। मेरी घड़ी समीप है।’’-अविचल भाव से उसने कहा।
‘‘तब भी तुम खेल दिखलाने चले आये!’’ मैंने कुछ क्रोध से कहा। मनुष्य के सुख-दु:ख का माप अपना ही साधन तो है। उसी के अनुपात से वह तुलना करता है।
उसके मुँह पर वही परिचित तिरस्कार की रेखा फूट पड़ी।
उसने कहा-‘‘न क्यों आता!’’
और कुछ अधिक कहने में जैसे वह अपमान का अनुभव कर रहा था।
क्षण-भर में मुझे अपनी भूल मालूम हो गयी। उसके झोले को गाड़ी में फेंककर उसे भी बैठाते हुए मैंने कहा-‘‘जल्दी चलो।’’ मोटरवाला मेरे बताये हुए पथ पर चल पड़ा।
कुछ ही मिनटों में मैं झोपड़े के पास पहुँचा। जादूगर दौड़कर झोपड़े में माँ-माँ पुकारते हुए घुसा। मैं भी पीछे था; किन्तु स्त्री के मुँह से, ‘बे...’ निकलकर रह गया। उसके दुर्बल हाथ उठकर गिर गये। जादूगर उससे लिपटा रो रहा था, मैं स्तब्ध था। उस उज्ज्वल धूप में समग्र संसार जैसे जादू-सा मेरे चारों ओर नृत्य करने लगा।
******************************

Friday, April 29, 2011

अमृता प्रीतम

मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है
सड़कें - बेतुकी दलीलों-सी…
और गलियाँ इस तरह
जैसे एक बात को कोई इधर घसीटता
कोई उधर

हर मकान एक मुट्ठी-सा भिंचा हुआ
दीवारें-किचकिचाती सी
और नालियाँ, ज्यों मुँह से झाग बहता है

यह बहस जाने सूरज से शुरू हुई थी
जो उसे देख कर यह और गरमाती
और हर द्वार के मुँह से
फिर साईकिलों और स्कूटरों के पहिये
गालियों की तरह निकलते
और घंटियाँ-हार्न एक दूसरे पर झपटते

जो भी बच्चा इस शहर में जनमता
पूछता कि किस बात पर यह बहस हो रही?
फिर उसका प्रश्न ही एक बहस बनता
बहस से निकलता, बहस में मिलता…

शंख घंटों के साँस सूखते
रात आती, फिर टपकती और चली जाती

पर नींद में भी बहस ख़तम न होती
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है….

Wednesday, February 09, 2011

परवीन शाकिर

हमारे दरमियाँ / परवीन शाकिर
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
हमारे दरमियाँ ऐसा कोई रिश्ता नहीं था
तेरे शानों पे कोई छत नहीं थी
मेरे ज़िम्मे कोई आँगन नहीं था
कोई वादा तेरी ज़ंज़ीर-ए-पा बनने नहीं पाया
किसी इक़रार ने मेरी कलाई को नहीं थामा
हवा-ए-दश्त की मानिन्द
तू आज़ाद था
रास्ते तेरी मर्ज़ी के तबे थे
मुझे भी अपनी तन्हाई पे
देखा जाये तो
पूरा तसर्रुफ़ था
मगर जब आज तू ने
रास्ता बदला
तो कुछ ऐसा लगा मुझ को
के जैसे तूने मुझ से बेवफ़ाई की
=======================
ख़ुश्बू है वो तो / परवीन शाकिर
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
ख़ुश्बू है वो तो छू के बदन को गुज़र न जाये
जब तक मेरे वजूद के अंदर उतर न जाये

ख़ुद फूल ने भी होंठ किये अपने नीम-वा
चोरी तमाम रंग की तितली के सर न जाये

इस ख़ौफ़ से वो साथ निभाने के हक़ में है
खोकर मुझे ये लड़की कहीं दुख से मर न जाये

पलकों को उसकी अपने दुपट्टे से पोंछ दूँ
कल के सफ़र में आज की गर्द-ए-सफ़र न जाये

मैं किस के हाथ भेजूँ उसे आज की दुआ
क़ासिद हवा सितारा कोई उस के घर न जाये

Monday, February 07, 2011

खलिश जावेद अख्तर

Mai paa saka na kabhi is khalish se chutkara
Wo mujhse jeet bhi sakta tha jaane kyo haara

Baras ke khul gaye hai aansu, nither gai hai fiza
Chamak raha hai sare-shaam dard ka taara

Kisi ki aankh se tapka tha ek amaanat hai
Meri hatheli rakha hua ye angaara

Jo par smete to ek shaakh bhi nahi pai
Khule the per to mera aasma tha saara

Wo saanp chor de dasna ye mai bhi kehta hu
Magar na chorenge log usko gar na funkaara.

Sunday, February 06, 2011

मुन्नवर राणा

मुनव्वर राना और शायरी

“मैं इक फकीर के होंठों की मुस्कुराहट हूँ
किसी से भी मेरी कीमत अदा नहीं होती "


"धुल गई है रूह लेकिन दिल को यह एहसास है,
ये सकूँ बस चंद लम्हों को ही मेरे पास है।"


"मेरी हँसी तो मेरे गमों का लिबास है
लेकिन ज़माना कहाँ इतना गम-श्नास है
हम न दिल्ली थे न मज़दूर की बेटी लेकिन
काफ़िले जो भी इधर आए हमें लूट गए
कच्चे समर शजर से अलग कर दिए गए
हम कमसिनी में घर से अलग कर दिए गए
मुझे सभांलने वाला कहाँ से आएगा
मैं गिर रह हूँ पुरानी इमारतों की तरह
ज़रा सी बात पर आँखें बरसने लगती थी
कहाँ चले गए वो मौसम चाहतों वाले
हमारे कुछ गुनाहों की सज़ा भी साथ चलती है
हम अब तन्हा नहीं चलते दवा भी साथ चलती है।
मैं पटरियों की तरह ज़मी पर पड़ा रहा
सीने से गम गुज़रते रहे रेल की तरह"

बेबसी के आलम में भी वो खुद्दारी की बात करते है–

"चमक ऐसे नहीं आती है खुद्दारी के चेहरे पर
अना को हमने दो दो वक्त का फाका कराया है
दिल ऐसा कि सीधे किए जूते भी बड़ों के
ज़िद इतनी कि खुद ताज उठा कर नहीं पहना
मियां मै शेर हूँ शेरों की गुर्राहट नहीं जाती
मैं लहजा नरम भी कर लूँ तो झुंझलाहट नही जाती"

बुज़ुर्गों के बारे में वो बड़ी बेबाकी से एक तरफ कहते है–

"खुद से चलकर नहीं ये तर्ज़े सुखन आया है,
पांव दाबे है बुज़ुर्गों के तो फन आया है।
मेरे बुज़ुर्गों का साया था जब तलक मुझ पर
मैं अपनी उमर से छोटा दिखाई देता रहा।"

जबकि दूसरी ओर कहते है—

"मेरे बुज़ुर्गों को इसकी खबर नहीं शायद
पनप सका नहीं जो पेड़ बरगदों में रहा।
इश्क में राय बुज़ुर्गों से नहीं ली जाती
आग बुझते हुए चूल्हों से नहीं ली जाती"

बच्चों के लिए उनकी राय है कि—

"हवा के रुख पे रहने दो ये जलना सीख जाएगा
कि बच्चा लड़खड़ाएगा तो चलना सीख जाएगा
इन्हें अपनी ज़रूरत के ठिकाने याद रहते है
कहाँ पर है खिलौनों की दुकां बच्चे समझते है।"

दो भाईयों के प्यार और रंजिश को वो यूँ देखते है–

"अब मुझे अपने हरीफ़ों से ज़रा भी डर नहीं
मेरे कपड़े भाइयों के जिस्म पर आने लगे।
तन्हा मुझे कभी न समझना मेरे हरीफ़
एक भाई मर चुका है मगर एक घर में है"

"जो लोग कम हो तो कांधा ज़रूर दे देना
सरहाने आकर मगर भाई भाई मत करना
आपने खुलके मोहब्बत नहीं की है हमसे
आप भाई नहीं कहते है मियाँ कहते है
कांटो से बच गया था मगर फूल चुभ गया
मेरे बदन में भाई का त्रिशूल चुभ गया"

Friday, February 04, 2011

बशीर बद्र

भोपाल के डा. बशीर बद्र उर्दू के एक ऐसे शायर हैं जिनकी सहज भाषा और गहरी सोच
उन्हें गजल प्रेमियों के बीच एक ऐसे स्थान पर ले गई है जिसकी बराबरी कर पाना
मुश्किल है ।

"दुश्मनी जमकर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त्त हो जायें तो शर्मन्द् न हों"

कभी कभी लोगों के दिल को पढ़ पाना कितना कठिन होता है । ऐसे ही लोगों के बारे में
बशीर साहब कहते हैं

"बहुत से लोग दिल को इस तरह महफूज रखते हैं
कोई बारिश हो ये कागज जरा भी नम नहीं होता"

और जब उनकी कलम से प्यार की रसभरी फुहार टूटती है तो देखिये ना नशा किस तरह
उतरता है

"कौन आया रास्त्त्त्ते आईनाखाने हो गए
रात रौशन हो गई दिन भी सुहाने हो गए"

"मेरी पलकों पर ये आँसू प्यर की तौहीन हैं
उसकी आँखों से गिरे, मोती के दाने हो गए"

और चलते चलते उनकी बेहद मशहूर पंक्तियाँ

"हमारा दिल सवेरे का सुनहरा जाम हो जाए
चरागों की तरह आखें जलें, जब शाम हो जाए

मैं खुद भी एहतियातन उस गली से कम गुजरता हूँ
कोई मासूम क्य्य्य्यों मेरे लिये बदनाम हो जाए

मुझे मालूम है उसका ठिकाना फिर कहाँ होगा
परिन्द् आसमाँ छूने में जब नाकाम हो जाए

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए"

आँसुओं में धुली खुशी की तरह, रिश्ते होते हैं शायरी की तरह
जब कभी बादलों में घिरता है, चाँद लगता है आदमी की तरह
सब नजर का फरेब है वर्ना, कोई होता नहीं किसी की तरह
उदास आँखों से आँसू नहीं निकलते हैं, ये मोतियों की तरह सीपियों में पलते हैं
मैं शाह राह नहीं रास्त्त्त्ते का पत्थर हूँ, यहाँ सवार भी पैदल उतर कर चलते हैं
उन्हें कभी नहीं बताना मैं उनकी आँखें हूँ, वो लोग फूल समझकर मुझे मसलते हैं
ये एक पेड़ है आ इस से मिलकर रों लें हम, यहाँ से तेरे मेरे रास्ते बदलते हैं
कई सितारों को मैं जानता हूँ बचपन से, कहीं भी जाऊँ मेरे साथ साथ चलते हैं

बशीर बद्र जी की ये एक बेहद मशहूर गजल है ये ! इसके चंद शेर आप सब की खिदमत
में हाजिर हैं
कोई फूल धूप की पत्तियों में हरे रिबन से बँधा हुआ
ये गजल का लहजा नया नया न कहा हुआ ना सुना हुआ ।
जिसे ले गई है अभी हवा, वो वर्क्क्क्क था दिल की किताब का
कहीं आँसुओं से मिटा हुआ, कहीं आँसुओ से लिखा हुआ ।
वर्क - पन्ना
कई मील रेत को काटकर, कोई मौज फूल खिला गई
कोई पेड़ प्यास से मर रहा, नदी के पास खड़ा हुआ ।
मौज - हवा
वो ही शहर हैं वो ही रास्ते, वो ही घर है और वो ही लान भी
मगर इस दरीचे से पूछना, वो दरख्त अनार का क्या हुआ ।

कुछ नये शेर जोड़ रहा हूँ जो मुझे पसन्द हैं :
---
ज़िन्दगी तूनें मुझे कब्र से कम दी है ज़मीं
पाँव फ़ैलाऊँ तो दीवार में सर लगता है ।
---
जी बहुत चाहता है सच बोलें
क्या करें हौसला नहीं होता ।
---
कोई हाथ भी न मिलायेगा, जो गले लगोगे तपाक से
ये नये मिज़ाज का शहर है, ज़रा फ़ासले से मिला करो ।
---
इतनी मिलती है मेरी गज़लों से सूरत तेरी
लोग तुझ को मेरा महबूब समझते होंगे ।
---
वो ज़ाफ़रानी पुलोवर उसी का हिस्सा है
कोई जो दूसरा पहनें तो दूसरा ही लगे ।
---
लोग टूट जाते हैं एक घर बनानें में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलानें में।
---
पलकें भी चमक जाती हैं सोते में हमारी,
आँखो को अभी ख्वाब छुपानें नहीं आते ।
---
तमाम रिश्तों को मैं घर पे छोड़ आया था.
फ़िर उस के बाद मुझे कोई अजनबी नहीं मिला ।
---
मैं इतना बदमुआश नहीं यानि खुल के बैठ
चुभनें लगी है धूप तो स्वेटर उतार दे ।

बद्र साहब की एक निहायत खूबसूरत गजल पेश है जिसे जगजीत सिंह ने गाया भी है ।

सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा
इतना मत चाहो उसे, वो बेवफा हो जाएगा ।
हम भी दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है
जिस तरफ भी चल पड़ेंगे रास्त्त हो जाएगा ।
कितनी सच्चाई से, मुझसे जिंदगी ने कह दिया
तू नहीं मेरा तो कोई दूसरा हो जाएगा ।
मैं खुदा का नाम लेकर पी रहा हूँ दोस्तों
जहर भी इसमें अगर होगा, तो दवा हो जाएगा ।
सब उसी के हैं, हवा, खुशबू, जमीन- ओ- आस्माँ
मैं जहाँ भी जाऊँगा, उसको पता हो जाएगा ।

Wednesday, February 02, 2011

माँ

खट्टी चटनी जैसी माँ / निदा फ़ाज़ली
बेसन की सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ ,
याद आता है चौका-बासन, चिमटा फुँकनी जैसी माँ ।
बाँस की खुर्री खाट के ऊपर हर आहट पर कान धरे ,
आधी सोई आधी जागी थकी दुपहरी जैसी माँ ।
चिड़ियों के चहकार में गूँजे राधा-मोहन अली-अली ,
मुर्गे की आवाज़ से खुलती, घर की कुंड़ी जैसी माँ ।
बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन थोड़ी-थोड़ी सी सब में ,
दिन भर इक रस्सी के ऊपर चलती नटनी जैसी मां ।
बाँट के अपना चेहरा, माथा, आँखें जाने कहाँ गई ,
फटे पुराने इक अलबम में चंचल लड़की जैसी माँ ।

विदा 2021

साल 2021 को अगर 364 पन्नों की एक किताब मान लूँ तो ज़्यादातर पन्ने ख़ुशगवार, शानदार और अपनों के प्यार से महकते मालूम होते हैं। हिसाब-किताब अगर ...