Sunday, January 04, 2015

डांस से अच्छी दुनिया और कोई नहीं

प्रख्यात कोरियोग्राफर सरोज खान से मेरी बात-चीत यहाँ भी पढ़ सकेंगे!




"धक-धक गर्ल" माधुरी दीक्षित को अपने इशारों पर नचाने वाली कोरियोग्राफर सरोज खान का जन्म 22 नवंबर, 1948 में हुआ था। सरोज खान ने 200 से भी ज्यादा फिल्मों में डांस कोरियोग्राफ किया है। सरोज खान का असली नाम निर्मला किशनचंद साधु सिंह नागपाल है। सरोज ने सरदार रोशन खान से शादी की थी, जिसके बाद उनका नाम सरोज खान पड़ गया।  सरोज खान की जोड़ी सबसे ज्यादा माधुरी दीक्षित के साथ जमी। उन्होंने माधुरी के लिए "एक दो तीन", "तम्मा तम्मा लोगे", "धक धक करने लगा" जैसे सुपरहिट गाने कोरियोग्राफ किए। 2014 में सरोज खान ने फिल्म "गुलाब गैंग" में माधुरी के साथ एक बार फिर काम किया। सरोज खान ने "नच बलिए", "झलक दिखला जा" और "उस्तादों के उस्ताद" जैसे डांस रिएलिटी शो भी जज किए। टीवी पर उनका शो "नचले वे विद सरोज खान" भी खासा लोकप्रिय हुआ था। 2012 में सरोज खान पर एक डॉक्यूमेंट्री "द सरोज खान स्टोरी" भी रिलीज हुई थी। सरोज खान की ज़िंदगी से जुड़े तमाम पहलुओं पर हमारे सहायक संपादक हीरेंद्र झा ने उनसे बातचीत की, प्रस्तुत है बातचीत के कुछ अंश।

हीरेंद्र: क्या कभी आपने सोचा था कि आप कभी डांस डायरेक्टर बनेगी?
सरोज खान: कभी नहीं! हमलोगों की फैमिली बहुत ही ऑर्थोडॉक्स फैमिली है। हमारे यहाँ न कोई गवैया है, न नाचने वाला है, न कोई पेंटर है और न ही कोई आर्टिस्ट है। मेरे मम्मी-पापा रिफ्यूजी बनकर यहाँ इंडिया आए थे। तब मैं माँ के पेट में थी। यहीं 22 नवंबर 1948 को मेरी पैदाइश हुई।
 मेरी माँ ने मुझे बताया था कि जब मैं तीन साल की थी तब मैं अपनी परछाई देख कर नाचा  करती थी। तो माँ परेशान मुझे डॉक्टर के पास लेकर गयी तब डॉक्टर ने कहा कि कोई चिंता  की बात नहीं है ये तो अच्छी बात है, आपकी बेटी डांस करती है। फिर उसी डॉक्टर ने मुझे इंडस्ट्री में इंट्रोडुस करवाया और तीन साल की उम्र में एक चाइल्ड आर्टिस्ट के रूप में मेरा करियर शुरू हो गया।  फिल्म का नाम था नज़राना। उसके बाद कुछ सालों का ब्रेक फिर मैं दस से बारह की उम्र में ग्रुप डांस करती रही फिल्मों में। और तभी दक्षिण के एक जाने-माने डांस मास्टर सोहन लाल ने मुझे परफॉर्म करते देखा और फिर उन्होंने मुझे अपना असिस्टेंट चुन लिया। वे पहले आर्टिस्ट्स जिन्हें मैंने डांस स्टेप सिखाया वो थे बैजंती माला और शम्मी कपूर।  पहले तो उन्होंने मुझसे साथ डांस सीखने से मना कर दिया कहा कि अब बच्चों से भी सीखना पड़ेगा तब मेरे गुरूजी ने कहा की वो जितना डांस करती है आप उतना ही कर लो यही बहुत है। फिर उन्होंने मेरा डांस देखा और मेरे फैन बन गये। मैंने बाद में उनके साथ कई स्टेज शोज किये। जब तक वे इंडस्ट्री में रहे मैं ही उनकी फिल्में करती रही। उसी तरह धीरे-धीरे मेरा करियर बनता रहा। फिर मुझे एक कव्वाली मिला। मैं तरह साल की थी, फिल्म का नाम था दिल ही तो  है, राजकपूर और नूतन पर फिल्माया गया गीत निगाहें मिलाने को जी चाहता है! ज़बरदस्त हिट साबित हुआ ये गीत। फिर मुझे डांस डायरेक्टर का तमगा मिला। उसके बाद तो ढेरों फिल्में की, दो सौ से भी ज़्यादा।

हीरेंद्र: आप सरोज खान कैसे बनी। उससे पहले आप शायद नागपाल लिखा करती थी?

सरोज खान: मैं कार्ड खेलना बहुत पसंद करती थी तो कई किटी पार्टी वगैरह में जाती रहती थी। तो मेरी एक दोस्त थे कोका कोला, वे comedian थे।  तो उन्होंने मुझे एक दिन सरदार खान से मिलाया । वो गोल्फ खेला  करते थे।  मैं पहली नज़र में ही अपना दिल दे बैठी  और इस तरह से हमारा रिश्ता आगे बढ़ा लेकिन मैंने उनसे कुछ छिपाया नहीं कि मैं दो बच्चों की माँ हूँ और मेरे पति अब इस दुनिया में नहीं हैं। लेकिन, सरदार खान ने बड़े बड़प्पन से हम सबको अपनाया, मेरे बच्चों को अपना नाम दिया। मेरा बेटा राजू खान और मेरी बेटी कुकु, जो अब इस दुनिया में नहीं है और वो अपनी दो बेटियां मेरे लिए छोड़ गयी है।  इस शादी से पहले मैंने अपने बेटे से पूछा जो वक़्त तेरह साल का था, मैंने उनसे पूछा कि बेटे एक आदमी तुम्हे अपना नाम देना चाहता है , वो तुम्हें अपना बेटा बनाना चाहता है , उसे अपने पिता का कुछ याद नहीं था, वो तो एक पिता पाकर खुश हो गया।  तो उसने भी कहा की माँ तुम सही कह रही हो फिर हमने शादी की, फिर उनसे मुझे एक बेटी हुई।  जो अभी अरब में है उनके हसबैंड पायलट हैं। मैं तेरह साल की थी जब पापा गुज़र गए। उसके बाद माँ, चार छोटी बहनें और एक छोटे भाई सबको सेटल करने के बाद मैं सेटल हुई।

हीरेंद्र: आपने जब अपना करियर शुरू किया तो महिलाओं के लिए कैसा माहौल था?

सरोज खान: अलग तरह का माहौल था। उस समय ऐसी ही धारणा थी कि जेंट्स ही डांस सीखा सकता है। तो ये चीज़ उलटी हो गयी, फिर लोगों ने मुझ पर भरोसा करना शुरू कर दिया। फिर श्रीदेवी, माधुरी का दौर आया तो फिर सारी दुनिया ने हमारा जादू देखा। उनके लिए मैं खास रही तो मेरे लिए वे दोनों ही खास रहे। मुझे घर की ज़्यादा चिंता इसलिए नहीं रहती थी क्योंकि हनीफा जब वो बारह साल की थी तब से मेरे साथ है, आज वो दादी बन गयी है उसने मेरे बच्चों का बहुत ध्यान रखा, आज मेरे बच्चों के बच्चों का भी बखूबी ध्यान रख रही है।  

हीरेंद्र: आज जिस तरह की डांस देखती हैं आप फिल्मों में उसके बारे में क्या कहेंगी?

सरोज खान: आज के डांस स्टेप बहुत गंदे हैं इसलिए मैंने अपना काम अब बहुत काम कर लिया है। आज कल सेंशुअस गाने नहीं आते अब वल्गैरिटी ज़्यादा है। नहीं तो मैं स्कूल चलते हैं उसमें मैं बिजी रहती हूँ। आज की पीढ़ी कंटेम्पररी के नाम पर भीख मांगी हुई चीज़ें हैं, हिप होप, हमारा कल्चर कितना रिच है हमें बाहर जाने की ज़रूरत ही नही। हमारे पास हर फेस्टिवल के लिए डांस हैं, विदेश से लोग यहाँ आकर हमसे सीख कर जाते हैं, लेकिन आज बच्चे हिप हॉप सीखेंगे। उन्हें बेसिक्स से मतलब नहीं है। मैंने स्कूल शुरू किया है, सिखाती हूँ बच्चों को।

हीरेंद्र: क्या आज के पेरेंट्स बच्चों को डांस सिखाने के लिए आसानी से तैयार हो जाते हैं?

सरोज खान: अब तो डांस का ज़बरदस्त क्रेज़ है। वे आज कल तो आपके पैरों को छूते हैं कि इनको डांस सीखा दीजिये। जब मैंने डांस शुरू किया था तो मेरे ससुर के फादर ने हमारे घर आना बंद कर दिया। मरते डैम  तक उन्होंने हमारे यहाँ पानी तक नहीं पीया, आज ऐसा नहीं है। आज मेरे स्कूल में ही पांच सौ से ज़्यादा बच्चे हैं जिन्हें हम सीखा रहे हैं।


हीरेंद्र: कोई यादगार पल जो आप  हमारे पाठकों से साझा करना चाहेंगे?

सरोज खान: मुझे याद है तेज़ाब की कामयाबी का जश्न मनाया जा रहा था। एक दो तीन, पिक्चर रिलीज़ हो गयी, सुपर हिट हो गयी।  तो उस से पहले मैं आपको बताऊँ फिल्मफेयर  डांस डायरेक्टर को अवार्ड नहीं दिया करता था। तो हमने पूछा भी था क्यों? तो उन्होंने कहा कि आप तीन घंटे की फिल्म में पंद्रह मिनट के लिए काम करते हैंड तो आपको क्यों अवार्ड दें! लेकिन, तेज़ाब चली एक दो तीन गाने की वजह से ही। तो यहाँ से तस्वीर बदली और पहली बार उनकी तरफ से लेटर आया की सरोज खान हम पहला फिल्मफेयर अवार्ड आपको दे रहे हैं, जो की मुझसे पहले कभी किसी को नहीं मिला था। उसके बाद फिर डांस के लिए भी अवार्ड मिलने लगे। तो तेज़ाब की सिल्वर जुबली पर एक पार्टी थी और सबने माधुरी को रिक्वेस्ट किया की वो इस गाने पर परफॉर्म करे। और उस समारोह में ग्यारह विलन जैसेकि अमरीश पूरी साहब, प्राण जैसों को भी सम्मानित किया जाना था। सब बैठे थे!  और माधुरी को नाचना था। दिनों से रिहर्सल हो रहा था। प्रोग्राम के दिन जब परफॉर्म करने का समय आया लड़के-लड़कियां सब स्टेज पर उतर चुके थे और जब माधुरी का टर्न आया तो उसने मुझे धक्का मार दिया फिर मैं स्टेज पर थी। पलट कर देखा  तो उसने हाथ जोड़ लिए! मैंने भी बिना समय गंवाए नाचना शुरू किया। नाचती रही।  अमित जी, अनिल कपूर सब खड़े होकर तालियां बजाते रहे। बहुत सम्मान मिला सबसे, वो हमेशा याद रहेगी! मेरे लिए डांस से अच्छी दुनिया और कोई नहीं।

हीरेंद्र: आज की लड़कियों के लिए कोई सन्देश?

सरोज खान: डर के, मायूस होकर मत बैठ जाओ। कुछ करो। कोई किसी का साथ नहीं देता, इसलिए अपने पैरों पर खड़ा होना ज़रूरी है। खुद को मज़बूत बनाओ, पूरी तैयारी से!

तस्वीर में मेरे साथ हैं सरोज खान 


Thursday, January 01, 2015

सर्द, स्याह रात और औरत




तीन साल पहले सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकारों को स्पष्ट निर्देश दिया था कि वे ऐसे हर संभव उपाय करें, जिनसे जाड़े से ठिठुर कर किसी की मौत न होने पाए। तब ठंड से प्रभावित सभी राज्य सरकारों को पर्याप्त संख्या में रैन बसेरे बनाने को कहा गया था, जहां गली और पार्कों में खुले आसमान के नीचे रात गुजारने को मजबूर गरीब लोग थोड़ी राहत पा सकें। मगर नतीजा वही धाक के तीन पात! हर साल सैकड़ों लोगों को जान तक गंवानी पड़ती है। यह समझना मुश्किल है कि कई बार महत्त्वहीन कार्यक्रमों पर पैसा बहाने वाली सरकारों की प्राथमिकता में जाड़े की मार झेलते लोगों की तकलीफ क्यों शुमार नहीं हो पाती! दिल्ली की जो बेघर आबादी है उसमें से 10 प्रतिशत औरतें हैं और उन्हें भी नींद आती है, इसलिए वे हर रात खुले में सोती हैं, तब दिल्ली उनके साथ कैसा सुलूक करती होगी, यह ठीक से बताना मुश्किल है। 
दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड के ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक राजधानी दिल्ली में ही तकरीबन 50000 लोग बेघर हैं। दूसरी ओर बेघरों से जुड़ी समस्याओं पर काम करने वाले गैर सरकारी संगठनों के मुताबिक यह संख्या 155000 के करीब है, जबकि आपको बता दें  2011 में सुप्रीमकोर्ट की निगरानी में सुप्रीमकोर्ट कमिश्नर ऑफिस, दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड और अन्य संस्थाओं की ओर से किये गए एक सर्वे के मुताबिक देश की राजधानी में बेघरों का आंकड़ा 2,46,800 के आसपास था। आंकड़ों का ये घालमेल बताता है कि कितने लोग सिर पर छत होने जैसी बुनियादी ज़रूरत से महरूम हैं, उसकी भी सटीक जानकारी उपलब्ध नहीं है। देखा जाये तो पूरे देश और राजधानी में बेघरों के हालात चिंतनीय और दुखद ही हैं। खैर, संख्या चाहे जो भी हो, सच इतना भर है कि ठंड के इस मौसम में शहर में एक बड़ी आबादी सड़कों पर रह रही है।  इनमें एक बड़ी आबादी औरतों और बच्चों की भी है
सुंदरी (काल्पनिक नाम) बताती है कि कैसे उसका मासूम बचपन इन्हीं रातों के साये में खो गया और  जब उसे कुछ-कुछ बातें समझ में आनी शुरू हुई तब तक बहुत देर हो चुकी थी वो आगे कहती है कि उसकी आँखों के सामने सैकड़ों यतीम लड़कियों को मर्दों ने हवस का शिकार बनाया। ये लड़कियां चाह कर भी विरोध नहीं कर पातीं। वे अपनी रोटी की भूख मिटाने के बदले उन मर्दों की देह की भूख मिटाती हैं। 
सुंदरी की जगह कोई और नाम ले आइए। तारा, कलावती, कुसुम, चंपा, रानी, रशीदा... सबके पास सुनाने के लिए अपनी कोई न कोई दर्द भरी दास्तान है। सबके ह्दय भरे हुए हैं। जरा सी बात छेडि़ए या किसी के पास बैठकर उसे सुनिए। आसपास से न जाने कितने चेहरे जमा हो जाएंगे। सबके पास अपनी कहानी है।
दिल्ली के रात की ज़िंदगी पर एक डाक्यूमेंट्री फिल्म बना चुके नीरज शर्मा बताते हैं कि कड़ाके की सर्दी में जहां लोग अपने घर की खिड़कियां भी खोलने से परहेज करते हैं, उसी सर्दी में देश की राजधानी में लोग खुली छत के नीचे सोने को मजबूर है  और इनमें औरतों की भी संख्या काफी ज़्यादा है। राजधानी में विकास का प्रतीक कहे जाने वाले फ्लाईओवर व मेट्रो स्टेशनों के नीचे लोगों को खुले में सोते देखा जा सकता है। द्वारका, उत्तम नगर, नवादा, द्वारका मोड़, केशोपुर समेत अनेक इलाके ऐसे हैं, जहां रात के समय में खुले में चादर ताने लोग पूरी रात करवट बदलकर गुजार लेते हैं। खासकर मेट्रो स्टेशनों के नीचे तो ऐसे दृश्य आम हो चुके हैं।
इन परिस्थितियों में सबसे बड़ा सवाल तो ये है कि आखिर क्यों आर्थिक महाशक्ति बनने का सपना संजो रहे देश में आज भी अनगिनत नागरिक सड़क और फुटपाथ पर जिंदगी गुज़ारने को मजबूर हैं?
राशिदा अपने सात बच्चों के साथ लाल बत्ती पर रुकनेवाले वाहनों में बैठे लोगों को गजरे, गुब्बारे और फूल बेचती हैंमहाराष्ट्र से दिल्ली आई राशिदा, आख़िर शोलापुर छोड़कर क्यों आई? पूछने पर वो बताती हैं, “अपने गाँव को कौन नहीं चाहता पर क्या करें, अगर वहीं रहते तो भूखे मरते, सो दिल्ली चले आए। ” दिल्ली के पुलिसवाले कहते हैं कि फ्लाईओवरों के नीचे रहनेवाले ये लोग छोटे अपराधों को अंजाम देते हैं पर राशिदा इसको बेवजह परेशान करना मानती हैं।  वो कहती हैं कि पुलिस के लिए तो जो ग़रीब है, वो अपराधी है।  उसे यह नहीं दिखता कि कौन कितनी मेहनत से काम करके अपनी एक वक़्त की रोटी का जुगाड़ रहा है। 
पूर्वी दिल्ली के एक मुख्य मार्ग पर हमे फ्लाईओवर के नीचे कुछ महिलाएं समूह में बैठी मिलीं। वे बमुश्किल हमसे बात करने को राज़ी हुईं।  उनमें से एक ने हमें बताया, “यहाँ कितनी ही संस्था वाले आए और नेता भी।  सब अपना काम निकालकर और हमारे फ़ोटो ख़ीचकर आगे बढ़ गए पर हमें कोई रियायत नहीं मिली।  लोग तो हमारे नाम पर खा रहे हैं। ”
रात नौ बजे के बाद ही सड़क पर महिलाओं की संख्या नदारद हो जाती हैं! शायद इसीलिए बस स्टॉपों पर महिलाओं की आमतौर पर दिखने वाली संख्या नज़र नहीं रही थी।  कुछ महिलाएँ दिखीं तो हमने उनसे इसकी वजह जाननी चाही।  पता चला, “हम अपने स्तर पर यह जोखिम उठाते हैं नहीं तो प्रशासन और लोगों से क्या आशा की जा सकती है।  अगर लोग और पुलिसवाले महिलाओं की सुरक्षा के लिए आगे आएँ तो ऐसी वारदातें हों ही ना
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, एम्स की ओर अगर जाएँ तो यहाँ देशभर से लोग अपना इलाज कराने आते हैं।  ग़रीबों के लिए तो यह आख़िरी विकल्प जैसा है और इसलिए अस्पताल के सामने, फुटपाथ पर मरीज़ों के रिश्तेदार रात को सोते हुए मिल जाते हैं। 
हमारा संविधान भारत के हर नागरिक को जीने का मौलिक अधिकार प्रदान करता है। संविधान के अनुच्छेद 19 (1) और 21 की यदि विस्तृत व्याख्या करें तो हर नागरिक को खाने के अलावा रहने के लिए सिर पर छत होनी चाहिए। राजनेताओं से बस इतनी ही गुज़ारिश है कि जब कभी मौका मिले संविधान के पन्ने को पलट लिया  करें सारी मुश्किलें पल भर में दूर हो जाएंगी!

·         हीरेंद्र झा


विदा 2021

साल 2021 को अगर 364 पन्नों की एक किताब मान लूँ तो ज़्यादातर पन्ने ख़ुशगवार, शानदार और अपनों के प्यार से महकते मालूम होते हैं। हिसाब-किताब अगर ...