तीन
साल पहले सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकारों को स्पष्ट निर्देश दिया था कि वे ऐसे
हर संभव उपाय करें, जिनसे जाड़े से ठिठुर कर किसी की मौत न होने पाए। तब ठंड से प्रभावित
सभी राज्य सरकारों को पर्याप्त संख्या में रैन बसेरे बनाने को कहा गया था, जहां गली
और पार्कों में खुले आसमान के नीचे रात गुजारने को मजबूर गरीब लोग थोड़ी राहत पा सकें।
मगर नतीजा वही धाक के तीन पात! हर साल सैकड़ों लोगों को जान तक गंवानी पड़ती है। यह समझना
मुश्किल है कि कई बार महत्त्वहीन कार्यक्रमों पर पैसा बहाने वाली सरकारों की प्राथमिकता
में जाड़े की मार झेलते लोगों की तकलीफ क्यों शुमार नहीं हो पाती! दिल्ली की जो बेघर आबादी है उसमें से 10 प्रतिशत औरतें हैं और उन्हें भी नींद आती है, इसलिए वे हर रात खुले में सोती हैं, तब दिल्ली उनके साथ कैसा सुलूक करती होगी, यह ठीक से बताना मुश्किल है।
दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड के ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक राजधानी दिल्ली में ही तकरीबन 50000 लोग बेघर हैं। दूसरी ओर बेघरों से जुड़ी समस्याओं पर काम करने वाले गैर सरकारी संगठनों के मुताबिक यह संख्या 155000 के करीब है,
जबकि आपको बता दें 2011 में सुप्रीमकोर्ट की निगरानी में सुप्रीमकोर्ट कमिश्नर ऑफिस, दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड और अन्य संस्थाओं की ओर से किये गए एक सर्वे के मुताबिक देश की राजधानी में बेघरों का आंकड़ा 2,46,800 के आसपास था। आंकड़ों का ये घालमेल बताता है कि कितने लोग सिर पर छत न होने जैसी बुनियादी ज़रूरत से महरूम हैं, उसकी भी सटीक जानकारी उपलब्ध नहीं है। देखा जाये तो पूरे देश और राजधानी में बेघरों के हालात चिंतनीय और दुखद ही हैं। खैर, संख्या चाहे जो भी हो, सच इतना भर है कि ठंड के इस मौसम में शहर में एक बड़ी आबादी सड़कों पर रह रही है। इनमें एक बड़ी आबादी औरतों और बच्चों की भी है।
सुंदरी
(काल्पनिक नाम) बताती है कि कैसे उसका मासूम बचपन इन्हीं रातों के साये में खो गया
और जब उसे कुछ-कुछ बातें समझ में आनी शुरू
हुई तब तक बहुत देर हो चुकी थी। वो आगे
कहती है कि उसकी आँखों के सामने सैकड़ों यतीम लड़कियों को मर्दों ने हवस का शिकार बनाया।
ये लड़कियां चाह कर भी विरोध नहीं कर पातीं। वे अपनी रोटी की भूख मिटाने के बदले उन
मर्दों की देह की भूख मिटाती हैं।
सुंदरी की
जगह कोई और नाम ले आइए। तारा, कलावती, कुसुम, चंपा, रानी, रशीदा... सबके पास सुनाने
के लिए अपनी कोई न कोई दर्द भरी दास्तान है। सबके ह्दय भरे हुए हैं। जरा सी बात छेडि़ए
या किसी के पास बैठकर उसे सुनिए। आसपास से न जाने कितने चेहरे जमा हो जाएंगे। सबके
पास अपनी कहानी है।
दिल्ली के
रात की ज़िंदगी पर एक डाक्यूमेंट्री फिल्म बना चुके नीरज शर्मा बताते हैं कि कड़ाके की
सर्दी में जहां लोग अपने घर की खिड़कियां भी खोलने से परहेज करते हैं, उसी सर्दी में
देश की राजधानी में लोग खुली छत के नीचे सोने को मजबूर है और इनमें
औरतों की भी संख्या काफी ज़्यादा है। राजधानी में विकास का प्रतीक कहे जाने वाले फ्लाईओवर
व मेट्रो स्टेशनों के नीचे लोगों को खुले में सोते देखा जा सकता है। द्वारका, उत्तम
नगर, नवादा, द्वारका मोड़, केशोपुर समेत अनेक इलाके ऐसे हैं, जहां रात के समय में खुले
में चादर ताने लोग पूरी रात करवट बदलकर गुजार लेते हैं। खासकर मेट्रो स्टेशनों के नीचे
तो ऐसे दृश्य आम हो चुके हैं।
इन परिस्थितियों में सबसे बड़ा सवाल तो ये है कि आखिर क्यों आर्थिक महाशक्ति बनने का सपना संजो रहे देश में आज भी अनगिनत नागरिक सड़क और फुटपाथ पर जिंदगी गुज़ारने को मजबूर हैं?
राशिदा अपने सात
बच्चों के साथ लाल बत्ती पर रुकनेवाले वाहनों में बैठे लोगों को गजरे, गुब्बारे और फूल बेचती हैं। महाराष्ट्र से दिल्ली आई राशिदा, आख़िर शोलापुर छोड़कर क्यों आई? पूछने पर वो बताती हैं, “अपने गाँव को कौन नहीं चाहता पर क्या करें, अगर वहीं रहते तो भूखे मरते, सो दिल्ली चले आए। ” दिल्ली के पुलिसवाले कहते हैं कि फ्लाईओवरों के नीचे रहनेवाले ये लोग छोटे अपराधों को अंजाम देते हैं पर राशिदा इसको बेवजह परेशान करना मानती हैं। वो कहती हैं कि पुलिस के लिए तो जो ग़रीब है, वो अपराधी है। उसे यह नहीं दिखता कि कौन कितनी मेहनत से काम करके अपनी एक वक़्त की रोटी का जुगाड़ रहा है।
पूर्वी दिल्ली के एक मुख्य मार्ग पर हमे फ्लाईओवर के नीचे कुछ महिलाएं समूह में बैठी
मिलीं। वे बमुश्किल हमसे बात करने को राज़ी हुईं।
उनमें से एक ने हमें बताया, “यहाँ कितनी ही संस्था वाले आए और नेता भी। सब अपना काम निकालकर और हमारे फ़ोटो ख़ीचकर आगे बढ़ गए पर हमें कोई रियायत नहीं मिली। लोग तो हमारे नाम पर खा रहे हैं। ”
रात
नौ बजे के बाद ही सड़क पर महिलाओं की संख्या नदारद हो जाती हैं! शायद इसीलिए बस स्टॉपों पर महिलाओं की आमतौर पर दिखने वाली संख्या नज़र नहीं आ रही थी। कुछ महिलाएँ दिखीं तो हमने उनसे इसकी वजह जाननी चाही। पता चला, “हम अपने स्तर पर यह जोखिम उठाते हैं नहीं तो प्रशासन और लोगों से क्या आशा की जा सकती है। अगर लोग और पुलिसवाले महिलाओं की सुरक्षा के लिए आगे आएँ तो ऐसी वारदातें हों ही ना।
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, एम्स
की ओर अगर जाएँ तो यहाँ देशभर से लोग अपना इलाज कराने आते हैं। ग़रीबों के लिए तो यह आख़िरी विकल्प जैसा है और इसलिए अस्पताल के सामने, फुटपाथ पर मरीज़ों के रिश्तेदार रात को सोते हुए मिल जाते हैं।
हमारा संविधान
भारत के हर नागरिक को जीने का मौलिक अधिकार प्रदान करता है। संविधान के अनुच्छेद
19 (1) और 21 की यदि विस्तृत व्याख्या करें तो हर नागरिक को खाने के अलावा रहने के
लिए सिर पर छत होनी चाहिए। राजनेताओं से बस इतनी ही गुज़ारिश है कि जब कभी मौका मिले
संविधान के पन्ने को पलट लिया करें सारी मुश्किलें
पल भर में दूर हो जाएंगी!
· हीरेंद्र झा
1 comment:
हृदयस्पर्शी..बहुत ही जरुरी विषय उठाता हुआ लेख.
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