वो गुड़गांव ही रहती थी। अक्सर उसे उसके घर तक छोड़ने जाता। उन दिनों मेट्रो वहाँ तक नहीं जाती थी तो हम आईआईटी गेट या धौला कुआँ से कैब पकड़ा करते। जब उसे छोड़ कर अकेला लौट रहा होता तो लगता एक मन जैसे वहीं छोड़ आया हूँ। फिर ये सिलसिला धीरे-धीरे कम हो गया और ख़त्म भी। लेकिन, मेरे भीतर एक गुड़गांव हमेशा ज़िंदा रहा है। सुना है कि अब वो शहर 'गुरुग्राम' के नाम से जाना जाएगा। क्या फर्क पड़ता है? जिस नाम से पुकार लो पर कुछ चीज़ें चाह कर भी नहीं बदली जा सकतीं। खैर, उसे आख़िरी बार टीवी पर ही कलाम साहब के जनाज़े के पास देखा था... उस दिन भी वो उतनी ही खूबसूरत लगी थी। वो शहर भी हमेशा खूबसूरत बना रहे। आमीन। #हीरेंद्र
मैं सिर्फ देह ही नहीं हूँ, एक पिंजरा भी हूँ, यहाँ एक चिड़िया भी रहती है... एक मंदिर भी हूँ, जहां एक देवता बसता है... एक बाजार भी हूँ , जहां मोल-भाव चलता रहता है... एक किताब भी हूँ , जिसमें रोज़ एक पन्ना जुड जाता है... एक कब्रिस्तान भी, जहां कुछ मकबरे हैं... एक बाग भी, जहां कुछ फूल खिले हैं... एक कतरा समंदर का भी है ... और हिमालय का भी... कुछ से अनभिज्ञ हूँ, कुछ से परिचित हूँ... अनगिनत कणों को समेटा हूँ... कि मैं ज़िंदा हूँ !!! - हीरेंद्र
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