चढ़ गया ऊपर रे, अटरिया पे लोटन कबूतर रे!! सरकाय लियो खटिया जाड़ा लगे, सैयां के साथ मडैया में, बड़ा मजा आया रजैया में, चोली के पीछे क्या है ...
जब मैं आठ, दस, बारह साल का था तो इसी तरह के गाने सुनता हुआ बड़ा हो रहा था. उस दौर में ऐसी ही फिल्में और गाने बना करते. कुल्फी वाला ठेले पर चोंगा लगाये यही सब बजाता घुमा करता. या फिर कहीं सरस्वती पूजा या विश्वकर्मा पूजा या ऐसे ही किसी अवसर पर ये गीत सुनने को मिलते. शायद यही वजह रही होगी कि मैं कभी हिंदी फिल्मों के गीतों से एक दीवाने की तरह न जुड पाया. जब अक्ल बढ़ी और साधन सहज हुए तब गीतों को नए सिरे से चुन-चुन कर सुना, जाना, पसंद भी किया. उसी दौर में हमारे अविभाजित बिहार के मुख्यमंत्री एक घटिया प्रसाद यादव हुआ करते थे. बिहार दिनों दिन गर्त में जा रहा था. हर तरफ एक निराशा और दहशत का माहौल था. बाबरी मस्जिद का टूटना भी याद है. नौ साल का था तब. मसलन ये कि उस दौर की राजनीति, फिल्मों और समाज ने एक बढ़ते हुए बच्चे को भटकाने की पूरी कोशिश की लेकिन वो बच्चा उन सबसे लड़ते हुए थोड़ा बहुत बचा रह गया. कहीं न कहीं एक ऐसा समाज हमें मिला जो घोर रूप से जातिवादी, भौतिकवादी और भ्रष्ट रहा है. इसका असर हमारे व्यक्तित्व पर भी पड़ा ही होगा. आज मैं तय कर पाता हूँ, गलत क्या था और सही क्या. पर आठ, दस साल की उम्र में कहाँ इतनी समझ थी. बहुत कुछ लिखना चाहता हूँ इस विषय पर. लिखूंगा भी. आज बस ये कहना है कि बच्चों को समझिए, उनके साथ वक्त गुजारिये. वो आपको किताबों के पन्ने पलटते हुए देख सकें, वो आपको खुल कर हँसते हुए देख सकें, आपको गाते-गुनगुनाते देख सकें, आपका आत्मविश्वास, आपकी नरमी, आपकी संवेदना उन्हें छू पाए...तभी, सिर्फ तभी आप बचा पाएंगे इस समाज को, दुनिया को, बचपन को!! उन्हें हर तरह की फिल्में दिखाइए, किताबें दीजिए. नम्बर लाने के दवाब से मुक्त रखिए. ज़िन्दगी को पढ़ना ज्यादा ज़रुरी है. सपने देखने का हौसला दीजिए वगैरह, वगैरह...चार दिन बाद आज थोड़ी फुर्सत मिली तो सोचा कुछ बात की जाए, आप सबसे. #आज इतना ही
#हीरेंद्र
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