Wednesday, April 18, 2018

गुड़गांव बना गुरूग्राम #पहली वर्षगांठ

वो गुड़गांव ही रहती थी। अक्सर उसे उसके घर तक छोड़ने जाता। उन दिनों मेट्रो वहाँ तक नहीं जाती थी तो हम आईआईटी गेट या धौला कुआँ से कैब पकड़ा करते। जब उसे छोड़ कर अकेला लौट रहा होता तो लगता एक मन जैसे वहीं छोड़ आया हूँ। फिर ये सिलसिला धीरे-धीरे कम हो गया और ख़त्म भी। लेकिन, मेरे भीतर एक गुड़गांव हमेशा ज़िंदा रहा है। सुना है कि अब वो शहर 'गुरुग्राम' के नाम से जाना जाएगा। क्या फर्क पड़ता है? जिस नाम से पुकार लो पर कुछ चीज़ें चाह कर भी नहीं बदली जा सकतीं। खैर, उसे आख़िरी बार टीवी पर ही कलाम साहब के जनाज़े के पास देखा था... उस दिन भी वो उतनी ही खूबसूरत लगी थी। वो शहर भी हमेशा खूबसूरत बना रहे। आमीन। #हीरेंद्र

" एक अधूरी प्रेम कहानी"

एक छोटी सी कहानी लिखी है..पढ़ियेगा जरूर..

* पति के ऑफिस जाते ही वो पहला काम यही करती कि अपने पुराने लेकिन हाल ही में दुबारा मिले प्रेमी को व्हाट्सअप मैसेज भेजती.
यह जानते हुए भी कि वह प्रेमी भी इस वक्त ऑफिस में होगा और अपने काम में रमा होगा.
उसका प्रेमी विनोद था तो बहुत संजीदा लेकिन लड़कियों के मामले में बहुत डिमाडिंग था. गांव में पत्नी को छोड़ शहर में अच्छे दिनों के इंतज़ार में लगा रहता. खूब मेहनत करता. पत्नी से जब भी बात होती तो प्यार, महोब्बत के बजाय दिनचर्या की जरूरत और पैसों की किल्लत के अलावा कुछ और बात होती नहीं..
ऐसे में उसे अपनी पुरानी प्रेमिका लेकिन हाल ही में दुबारा मिल गई प्रीति में थोड़ा सूकून मिलने लगा.
दोनों जब भी मौका मिलता.. बोलते -बतियाते.. फोन पर ही एक दूसरे के गले लगते.. चूम लेते.. वगैरह, वगैरह!
लगभग एक साल में इन दोनों का रिश्ता इतना गहरा हो गया कि दोनों अब शादी करने के सपने देखने लगे..
लेकिन, एक मुश्किल थी.. विनोद जहाँ एक बेटी का बाप था तो वहीं प्रीति दो बेटों की माँ थी.
दोनों अपने बच्चों से बेहद प्यार करते थे. अब मुश्किल यही थी कि पति और पत्नी से तो दोनों अलग हो भी जाये लेकिन, बच्चों से?
इस बीच विनोद की किताब छपकर आ गई.. और देखते ही देखते जिन अच्छे दिनों का उसे इंतज़ार था वो बांहे फैलाये उसके सामने खड़ा था.
विनोद ने कुछ सोचकर अपनी पत्नी को गांव से शहर बुलवा लिया. बेटी भी आ गई. इस नये और सुखद बदलाव ने विनोद को ताजगी से भर दिया.. वह मन लगाकर काम करने लगा.. काम के बाद उसका ज्यादा से ज्यादा वक्त पत्नी वसुंधरा और बेटी अाराध्या के साथ गुजरने लगा..
उधर प्रीति की हालत ऐसी कि उसे कुछ सूझे नहीं..वो बेचैन रहने लगी.. सोचती कि उसके और विनोद के बीच में अब वसुंधरा आ गई है.. इधर विनोद को शायद ही प्रीति का ख्याल आता..
इस बीच उसकी दूसरी किताब भी छपकर आ गई.. यह किताब भी बहुत पॉपुलर हुई.. एक दिन प्रीति के हाथों तक भी वो किताब पहुंच ही गई.. प्रीति ने जब उस किताब का नाम पढ़ा तो यूं लगा जैसे उसे उसके सवाल का जवाब मिल गया हो..
विनोद की इस दूसरी किताब का नाम था : " एक अधूरी प्रेम कहानी" #हीरेंद्र

Friday, April 13, 2018

अगर 'Cook' भी होता तो मैं एक अच्छा 'Cook' होता, जानिये पंकज त्रिपाठी के ये 5 दिलचस्प जवाब

हीरेंद्र झा, मुंबई। आज नेशनल फ़िल्म अवार्ड की घोषणा हुई है। तमाम अवार्ड्स के बीच राजकुमार राव और पंकज त्रिपाठी की फ़िल्म 'न्यूटन' को बेस्ट फ़िल्म का अवार्ड दिया गया जबकि अभिनेता पंकज त्रिपाठी को भी स्पेशल मेंशन अवार्ड मिला है!

हाल के वर्षों में पंकज त्रिपाठी ने अपने सहज अभिनय से सबका ध्यान खींचा है। 'गैंग्स ऑफ़ वासेपुर', 'निल बट्टे सन्नाटा', 'अनारकली ऑफ़ आरा' 'मुन्ना माइकल' और 'न्यूटन' जैसी फ़िल्मों में अपनी एक अलग छाप छोड़ने वाले पंकज त्रिपाठी ने पिछले दिनों जागरण डॉट कॉम से एक लंबी बातचीत की। प्रस्तुत हैं उस बातचीत के कुछ चुनिन्दा अंश।



'गांव का आदमी हूं'

पंकज त्रिपाठी मुंबई में रहते हैं। लेकिन, उन्हें जब भी मौका मिलता है वो अपने गांव ज़रूर जाते हैं। पंकज को अपने गांव (गोपालगंज,बिहार) से बेहद लगाव है। वो कहते हैं- "अगर कोई पेड़ अपने रूट से न जुड़ा रहे तो कैसे सर्वाइव करेगा? हमारे गांव, खेत-खलिहान, रिश्ते-नाते, गाय-बकरियां, नदियां इनसे हमें ताकत मिलती है।" उनके मुताबिक- आज उनमें जो भी संघर्ष करने की क्षमता है वो उनके गांव की ही देन है। वो कहते हैं -"मैं कहीं भी रहूं, मैं अपने गांव से जुड़ा रहता हूं क्योंकि मैं गांव का आदमी हूं।"

एक्टिंग का कोई शॉर्ट-टर्म कोर्स नहीं होता

गौरतलब है कि पंकज नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा, दिल्ली से भी लम्बे वक़्त तक जुड़े रहे। पंकज बताते हैं कि-"आम तौर पर आज ऐसा हो गया है कि कोई भी सोचता है तीन महीने और छह महीने का वो कोई कोर्स कर लेगा और एक्टर बन जाएगा तो ऐसा नहीं है। मैंने दस साल एक्टिंग को दिए हैं। लेकिन, आज की पीढ़ी के पास धीरज नहीं है।" वो आगे कहते हैं - "जैसा कि मैंने कहा कि मैं गांव में रहा हूं। मैंने खेती की है। हम बीज डालते, खाद-पानी डालते, उसकी देखभाल करते तब जाकर फ़सल काटने की आदत रही है हमारी। इतना धीरज आज की जेनेरेशन में नहीं है। वो सब-कुछ इंस्टेंट चाहते हैं! उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि एक्टिंग का कोई शॉर्ट-टर्म कोर्स नहीं होता।"

बतौर एक्टर एक संतुलन जरुरी है

किस तरह के किरदार ज्यादा लुभाते हैं? इसके जवाब में पंकज कहते हैं कि एक एक्टर को हर तरह की फ़िल्में करनी चाहिए। बकौल पंकज- "मैं समझता हूं कि बतौर एक्टर एक संतुलन ज़रूरी है। अगर आप कमर्शियल फ़िल्मों में नज़र आ रहे हैं तो कुछ छोटी और महत्वपूर्ण फ़िल्मों से भी आपको जुड़े रहना होगा। दोनों का दर्शक अलग है। आप बड़ी फ़िल्में करते हैं साथ ही छोटी फ़िल्मों में भी नज़र आएं तो इनसे उन छोटी फ़िल्मों को भी ज्यादा दर्शक मिलेंगे। यह सिनेमा के लिए एक अच्छी बात होगी!"

पॉपुलर होना और यादगार होने में फ़र्क है

कामयाबी को किस तरह से देखते हैं? इस बाबत पंकज कहते हैं कि- "आज का दौर कॉपी, पेस्ट, शेयर और सेल्फ़ी का दौर है। इसमें कोई ठहरकर जांच-पड़ताल नहीं करता। गुणवत्ता को परखने का समय किसी के पास नहीं होता। ऐसे में हो सकता है आप पेज थ्री पर छपने लग जाएं, पॉपुलर भी हो जाएं। लेकिन, उसमें स्थायित्व नहीं होगा। वो क्षणिक होगा। पॉपुलर होने और यादगार बन जाने में फ़र्क होता है और ऐसा तब तक संभव नहीं जब तक आप फ़ेक लाइफ़ जी रहे हैं। पंकज के मुताबिक अगर किसी में ट्रुथफुलनेस नहीं है तो फिर बाकी चीजों का कोई मायना नहीं!

मैं एक कुक भी होता तो एक अच्छा कुक होता

अगर आप एक्टर नहीं होते तो क्या होते? इस सवाल के जवाब में पंकज कहते हैं कि- " मैं एक कुक होता। क्योंकि मैंने होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई की है। मैं किसी फाइव स्टार होटल में कहीं इंडियन रेसिपी बना रहा होता।" आगे वो कहते हैं- "लेकिन, एक बात ज़रूर है कि अगर मैं कुक भी होता तो एक अच्छा कुक होता! कुक ही क्यों अगर मैं कहीं क्लर्क भी होता तो एक अच्छा क्लर्क होता! क्योंकि एक सिंसेरिटी (निष्ठा) मुझमें हमेशा से रही है कि जीवन में जो करना अच्छे से करना, मन से करना।"


By Hirendra J


यह बातचीत दैनिक जागरण के समाचार वेबसाइट जागरण डॉट कॉम से साभार ली गयी है! जागरण डॉट कॉम के लिए राज शेखर से यह बातचीत मैंने ही की है- हीरेंद्र झा 
यह रहा लिंक:

https://www.jagran.com/entertainment/bollywood-pankaj-tripathi-latest-interview-after-special-mention-in-newton-in-national-award-16442347.html

Wednesday, April 11, 2018

'बाइक' वाला लड़का

एक छोटी सी कहानी लिखी है..पढ़ियेगा जरूर..
एक बाइक पर एक लड़का अपनी गर्लफ्रेंड को पीछे बिठाये चला जा रहा है. अब इस दृश्य के जितने एहसास हो सकते हैं वो सोचकर आपको गुदगदी आ रही होगी तो बता दूँ कि सामने रेड सिग्नल हो गया. लड़के ने बाइक रोक दी. बगल में एक कार भी आकर रूक गई. ज़ाहिर है ग्रीन सिग्नल का इंतज़ार कर रहे थे सब. ट्रैफिक सिग्नल पर नज़र गई तो देखा 77 सेंकेंड अब भी लगेगा लाल को हरा होने में. उधर ट्रैफिक की गिनती चालू थी तो इधर कार में बैठे लोफड़ों की भी.. 32,34,36
कार में बैठे एक लफंगे ने कहा कि सौ टका टंच माल है..तभी दूसरे ने कहा ऐ हमारे साथ चलती क्या? बाइक से नहीं कार में घूमायेंगे?
अब बाइक चला रहे लड़के से रहा न गया. गुस्से में वो बाइक से उतरने लगा.. गर्लफ्रेंड से कहा उतरो जरा.. अभी सालों की तोड़ता हूँ!
पीछे बैठी लड़की ने कहा छोड़ो न यार.. अब लड़ाई वड़ाई मत करो.. चलो..
लड़का मान गया.. बत्ती हरी होते ही वह तेजी से वहां से निकला. लेकिन, थोड़ी दूर जाने के बाद एक ऑटो वाले की उसके बाइक से टक्कर हो गई. टक्कर ज्यादा जोर की नहीं थी.. बस बुजुर्ग ऑटो वाले का अगला पहिया उसके बाइक से छू गया.. लड़के को फिर गुस्सा आ गया.. उसने अपनी गर्लफ्रेंड से कहा उतरो जरा.. अभी साले को तोड़ता हूँ!
पीछे बैठी लड़की ने कहा छोड़ो न यार.. अब लड़ाई वड़ाई मत करो.. चलो..
लेकिन, लड़के ने एक न सुनी.. और लगा मां बहन की गालियां बकते हुए बूढ़े रिक्शा चालक पर हाथ साफ करने!
उसकी गर्लफ्रेंड ने बहुत मुश्किल से दोनों को अलग किया..
रिक्शेवाले ने लड़की को हाथ जोड़कर कहा : बेटी मैंने जानबूझकर टक्कर नहीं मारी.. गलती हो गई.
लड़की ने बड़े प्यार से रिक्शे वाले से कहा... कि अंकल आप मुझे छेड़ लेते तो ये लड़का आपसे कुछ नहीं कहता.. लेकिन, आपने बड़ी गलती कर दी जो इसके बाइक को टक्कर मार दी..
यह कह कर वो लड़की तेजी से वहां से निकल गई #हीरेंद्र

Tuesday, April 10, 2018

‘मुझे गीत लिखने में मज़ा नहीं आता’, जानिये गीतकार राज शेखर के कुछ दिलचस्प जवाब


हीरेंद्र झा, मुंबई। गीतकार राज शेखर ने बहुत ही कम समय में अपनी एक मजबूत पहचान बना ली है। ‘तनु वेड्स मनु’, ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’, ‘करीब करीब सिंगल’ और हाल ही में आई ‘हिचकी’ जैसी फ़िल्मों में गीत लिख चुके राज शेखर जागरण डॉट कॉम के ऑफिस आये और उन्होंने कई विषयों पर खुलकर अपनी बात रखी।
पैसे की कमी की वजह से दो फ़िल्मों में अभिनय कर चुके राज शेखर ने बहुत जल्दी समझ लिया था कि अभिनय उनके बस की बात नहीं है। सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, कबीर और अमीर खुसरो को अपना आदर्श मानने वाले राज शेखर इन दिनों एक फ़िल्म की कहानी भी लिख रहे हैं। प्रस्तुत हैं उनसे बात चीत के कुछ चुनिंदा अंश-

‘बिहार भी बचा रहे’
राज शेखर बिहार के मधेपुरा जिले से आते हैं और अपने जड़ों के बारे में बात करते हुए बताते हैं कि “कोई भी कलाकार अपनी माटी से कटकर नहीं रह सकता और मैं अपने दोस्तों के बीच इस बात के लिए बदनाम हूं कि मैं पांच दिनों के लिए गांव जाता हूं और बीस दिनों के बाद आता हूं। मुझे बहुत मन लगता है वहां।’’
वो आगे कहते हैं- “मुझे तो नहीं पता लेकिन, लोगों का कहना है कि मेरे गानों में बहुत ज्यादा गांव के शब्द होते हैं! तो मेरे भीतर बिहार बचा हुआ है और बिहार बचा हुआ है तो हम बचे हुए हैं! एक और बात मैं जोड़ता चलूं कि हमारे अंदर तो बिहार बचा ही है और हम ये भी चाहेंगे कि बिहार भी बचा रहे। क्योंकि राजनीतिक रूप से जिस तरह से चीज़ें वहां चल रही हैं वो परेशान करती हैं।’’
मेरी कमियों के साथ कीजिये मुझे स्वीकार
उच्चारण में आंचलिक प्रभाव के बारे में पूछने पर वो बताते हैं कि- “एक समय तक हिचकिचाते थे बहुत, हम गलत तो नहीं बोल रहे हैं। अभी भी कोशिश में लगे हुए हैं कि ‘कोशिश’ को ‘कोशिश’ बोले लेकिन कई बार ‘कोसिस’ निकल जाता है। एक समय तक हम ट्राय कर सकते हैं इस चीज़ के लिए लेकिन, एक समय के बाद दम घुटने लगता है। वो ठीक नहीं लगता। क्योंकि अगर आप खुद को एक्ससेप्ट कर लेंगे तो चीज़ें आसान हो जाती हैं’
वो आगे कहते हैं- ‘‘इन गलतियों के साथ क्या आप मुझे स्वीकार कर सकते हो? अगर कर सकते हो तो कर लो? और शुक्र है मुझे इन गलतियों के बावजूद कई लोगों का प्यार और मोहब्बत मिला। ‘मजनू का टीला’ जो कविताओं की एक संगीतमय प्रस्तुति है। उसके शुरू होने से पहले मैं ज़रूर कहता हूं कि बिहार से हूं और बीस साल से इसी कोशिश में हूं कि उच्चारण सही हो, नुक्ते सही जगह पे लगाऊं, हम अपनी तरफ से कोशिश कर रहे हैं और जरा आप भी अपनी तरफ से एडजस्ट कीजियेगा। डिस्क्लेमर मैं दे देता हूं और मैं व्याकरण में नहीं पड़ना चाहता लेकिन, मैं कहना चाहूंगा कि अगर आप के बात में बात हो तो बात बन जाती है!”
साथ ही राज शेखर यह कहना भी नहीं भूलते कि- “इस मामले में मीडिया से भी बहुत उम्मीदें हैं क्योंकि कई बार शब्दों को लेकर दुविधा होती है तो हम अखबार देखते हैं कि मानक क्या है? इसलिए शब्दों की शुद्धता की दिशा में मीडिया की जिम्मेदारी ज्यादा है।”
अपनी सीमा से बाहर जाकर लिखना 
इस बारे में बात करते राज शेखर कहते हैं कि- “हिचकी के लिए गाने लिखते हुए मैंने अपनी सीमाओं को तोड़ा। फ़िल्म में मेरे दो गाने थे और दोनों बिल्कुल अलग मूड के थे। हिचकी में मैंने जो अपने लिए एक सीमा खींच रखी थी कि मैं ये शरारत वाला गाना नहीं लिख सकता हूं ‘मैडम जी गो इजी, सब वाय फाय हम थ्री जी’ ये सामान्य तौर पर मैं नहीं लिख सकता। लेकिन, उन बच्चों के मनोविज्ञान को, उनकी शब्दकोष को समझना, जिनकी अपनी एक दुनिया है, जो अपनी कहानी बुनते रहते हैं और उनके टोन में गाना लिखना वो मैं इस गाने में कर पाया।
अब मुझे लगा कि मैं यह भी लिख सकता हूं। बीच में मैं घबरा गया था लेकिन, 50-60 ड्राफ्ट लिखने के बाद ये फाइनल हुआ। जबकि ‘खोल दे पर’ एक बार में फाइनल हो गया। हालांकि, ‘थ्री जी वाय-फाय’ मनीष का आईडिया था लेकिन, मैं अपनी बाउंड्री तोड़ सका। ऐसा है कि आप आधी रात को भी बोले कुछ रोमांटिक लिखना है तो मैं लिख दूंगा। अब जैसे आइटम नंबर है वो लिखने में मुझे आज भी पसीने छूट जाते हैं। शैलेन्द्र असल मायने में गीतकार थे। कैसे एक गीतकार अपनी व्यक्तिगत परिधि से निकल कर लिखता है वो उनको देखकर समझा जा सकता है। शैलेन्द्र नास्तिक थे लेकिन, एक फ़िल्म में उन्होंने लिखा “सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है’ या फिर जावेद अख्तर का ‘मन से रावण जो निकाले, राम उसके मन में है’ या ‘ओ पालनहारे...’ तो ये किरदार की वजह से ही आप लिख सकते हैं और इसलिए एक गीतकार हमेशा अपनी सीमाएं तोड़ता रहता है!

भीतर के कवि और गीतकार में रहता है द्वन्द्व
राज शेखर इस बारे में बात करते हुए कहते हैं कि- “मेरी एक ही कोशिश रहती है कि गाने में कम से एक लाइन ऐसी हो जहां मैं बोल सकूं की यार यहां पर मैं प्रेजेंट था। क्योंकि तमाम दबाव होते हैं आपके पास। कैरेक्टर का दबाव, म्युज़िक का दबाव, डायरेक्टर का दबाव, बाज़ार का दबाव, तमाम दबावों के बीच में एक गीतकार का उपस्थित होना ज़रूरी है! क्योंकि कविता से अलग विधा है गीत। क्योंकि आप एक खास किरदार के लिए लिख रहे हैं। आप राज शेखर बनकर लिखेंगे तो बेईमानी होगी। आप अगर मनु शर्मा या तनुजा त्रिवेदी के लिए लिख रहे हैं तो वहां पे आपको तनुजा के किरदार में जाकर लिखना होगा। आपके भीतर के गीतकार और आपके भीतर के कवि के बीच एक द्वन्द्व चलता रहता है, मेरी अपनी कोशिश रहती है कि कम से कम एक लाइन में मैं मौजूद दिखूं।’’
राज शेखर आगे कहते हैं- “हर आदमी अपने मन में कविता लिखता है। पर हर आदमी आपके या हमारे शब्दकोष से शब्द लेकर कविता नहीं लिखता। कुछ की कविताओं में रवि, खरीफ, गेंहू या बाजरे की बात होती है तो कुछ की कवितायें पसीने में भींगे हुए होते हैं। एक किसान की कविता उसके खेत में जाकर देखिये। लेकिन, जब मैं गीत लिख रहा हूं और अगर मैं उसमें कवि राज शेखर को ठेलूंगा तो वो उस निर्माता, निर्देशक, उस किरदार जिसके लिए लिख रहा हूं उन सबके साथ बेईमानी होगी। क्राफ्ट में आप खुद होने चाहिए और कथ्य में आपको किरदार के साथ होना चाहिए।”
‘दिल तो सबका टूटता है’
कवि या गीतकार बनने के लिए दिल का टूटना एक तरह से ज़रूरी माना गया है? आप क्या कहते हैं? इसका जवाब देते हुए राज शेखर बताते हैं कि ‘दिल किसका नहीं टूटता? अब ‘जाने दे....’ (करीब करीब सिंगल का गीत) की बात करें तो एक वक़्त के बाद आपको ‘लेट गो’ करना पड़ता है। वो हमारे बुजर्गों ने कहा है न- ‘वो अफसाना जिसे अंज़ाम तक ले जाना न हो मुमकिन, उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा।’ कई बार अजनबी हो जाना भी अच्छा होता है। और अगर हम उस अनुभव को, उन संवेदनाओं को याद करके उन पलों को फिर से जी सकें, कुछ रच सकें तो दिल टूटना भी वरदान सा हो जाता है।’’


‘मुझे गीत लिखने में मज़ा नहीं आता’
वो कहते हैं कि- “एक बात हमने हाल में एक्सप्लोर किया है कि मुझे लिखने में मज़ा नहीं आता। वो वक़्त बीत गया जब मैं मजे के लिए लिखता था। अब ये मेरा काम है। जैसे किसान का काम है, जैसे एक पत्रकार का काम है, जैसे कोई बैंकर को छूट नहीं मिलती, एक मजदूर नहीं कह सकता की आज मुझे सड़क साफ़ करने में मज़ा नहीं आ रहा क्योंकि आज मेरा मूड खराब है। तो उसी तरह से गीत लिखना अब मेरा काम है और तमाम बंदिशों के बावजूद मुझे गीत लिखना ही है।’’
वो आगे कहते हैं “एक तरह से आप क्रिएटिव क्लर्क की तरह हो जाते हैं। उसी गीत में मेरी कोशिश रहती है कि मैं एक बार दिख जाऊं! जैसे ‘सजन रे झूठ मत बोलो’ में एक जगह दिखते हैं शैलेन्द्र जब वो लिखते हैं – ‘तुम्हारे महल चौबारे यहीं रह जायेंगे सारे, अकड़ किस बात की प्यारे, ये सिर फिर भी झुकाना है..सजन रे झूठ मत बोलो।’’
By Hirendra J
यह बातचीत दैनिक जागरण के समाचार वेबसाइट जागरण डॉट कॉम से साभार ली गयी है! जागरण डॉट कॉम के लिए राज शेखर से यह बातचीत मैंने ही की है- हीरेंद्र झा 

Friday, March 30, 2018

रोमांस, प्रेम और सेक्स में अंतर है- पहली किश्त

अभी जब मैं यह लिखने बैठा तो मेरी नज़र खिड़की के बाहर चांद पर गई. गुलजार याद आए. उनकी एक बात याद आई. गुलजार ने चांद पर जितना और जिस तरीके से लिखा है वह काफी पसंद किया गया. एक जगह वह लिखते हैं- 'जैसे चिड़िया दाना चुगती है वैसे ही उनके मन का मयूर चांद को चुग रहा है'. अहा! यह जो गहराई है, यह जो शिद्दत है यह बिना रोमांटिसिज्म के संभव नहीं. प्यार में ऐसा नहीं कहते? आप रोमांस में ही ऐसा कह सकते हैं. और ऐसा नहीं है कि गुलजार आज लिख रहे हैं यह सब..दरअसल, इस तरह के प्रयोग लेखन के जरिए 1800 इसवीं के आसपास शुरू हो गए थे. अंग्रेज़ी साहित्य में एक पूरी शताब्दी है रोमांटिसिज्म के नाम पर. 
 
हिंदी में स्वच्छंदतावाद कहा जाता है! तो ये रोमांटिसिज़्म कुछ इस तरह का है कि इसमें कुछ चीजों को तो पूरी तरह से नकार दिया गया तो कुछ बातों पर पूरी तरह से केंद्रित होकर सृजन किया गया है. यहां एक मूर्त रूप चाहिए होता है, जिसको अपनी निहार सके..महसूस कर सके..यहां विविधता है..प्रकृति है..कुछ भी मशीनी नहीं! आजादी है, उन्मुक्तता है..
 
रूसो ने अपने दौर में इस बात को शिद्दत से महसूस किया और  कहा भी कि एक आदर्श और खूबसूरत दुनिया अगर बनानी है तो प्रकृत अवस्था की ओर लौटना होगा! रोमांटिसिज़्म का मतलब यह रहा उनके लिए तो अंग्रेज़ी साहित्य में यह एक आंदोलन की तरह चला है. विलियम ब्लैक, विलियम वर्डस्वर्थ, कोलरिज, बायरन, शेली, कीट्स इन सबने वो सबकुछ रच दिया है जो बाद में हिंदी वालों ने छायावाद के रूप में रचना शुरू किया और गुलज़ार जैसों ने चाँद के बहाने रचा! 

जैसे आज हर तरफ राष्ट्रवाद की गूंज आप सुनते हैं कभी रोमांटिक राष्ट्रवाद की बात भी जर्मनी के दार्शनिक हार्डर किया करते थे. लोक संस्कृति, कला के प्रचार-प्रसार को महत्व दिया गया. भारत सहित अन्य देश में रोमांटिसिज़्म अपने-अपने तरीके से विकसित हुआ! 

कई उदाहरण है लेकिन, इसे मैं पीएचडी की थीसिस की तरह नहीं लिख रहा हूं! तो रोमांटिसिज़्म का अर्थ जो बताया गया है उनमें संवेदनाओं पर जोर देते हुए किसी वस्तु, व्यक्ति विशेष या अतीत के वैभव को, विरासत को, प्रकृति को, इन सबका एक तरह से गुणगान करना है! 

ज़ाहिर है रोमांस का मतलब प्यार तो बिल्कुल भी नहीं, जो समझने की भूल कर ली जाती है अपने यहां ! यह लेख जारी रखूँगा! फिलहाल इतना ही! प्यार और सेक्स पर भी खुल कर लिखना चाहूंगा ताकि तीनों का अंतर स्पष्ट हो सके. 

#हीरेंद्र

Saturday, September 26, 2015

(एक प्रेम गीत, संडे स्पेशल)

मान जाइए अब न आना-कानी कीजिये
एक मीरा को फिर से दीवानी कीजिये...
तरसे हैं उम्र भर हम इसी आस में
कि मुझको आप अपनी राधा-रानी कीजिये...
देना चाहती हूँ हर खज़ाना आपको - २
आ जाइए हमको महादानी कीजिये..
कविताएं बहुत सुनीं हूँ आपसे मेरे सजन
आज से शुरू कोई कहानी कीजिये...- २
सदा रहिये संग मेरे बन के मिसाले-हिंद
ऐसे टूट के मोहब्बत खानदानी कीजिये...
मान जाइए अब न आना-कानी कीजिये
एक मीरा को फिर से दीवानी कीजिये...हीरेंद्र
(एक प्रेम गीत, संडे स्पेशल)

विदा 2021

साल 2021 को अगर 364 पन्नों की एक किताब मान लूँ तो ज़्यादातर पन्ने ख़ुशगवार, शानदार और अपनों के प्यार से महकते मालूम होते हैं। हिसाब-किताब अगर ...