Tuesday, September 15, 2020

अनमोल आँसू

आँसू अनमोल होता है। इन्हें सस्ते लोगों के सामने नहीं बहने दीजिये। वे ताना मारेंगे, कमजोर कहेंगे, मूर्ख और मंद बुद्धि भी समझेंगे। जब मन छलक उठे तो एकांत में बैठकर जब तक जी करे, रो लीजिये। फिर खुद के ही पीठ थपथपा कर अपने आप को चीयर कीजिये। यह दुनिया इतनी संवेदनशील नहीं कि आपके आँसू का मर्म समझ सके। कुछ लोग कहेंगे कि आप सहानुभूति पाना चाहते हैं, इसलिए रोने का अभिनय करते हैं। ऐसे लोगों के सामने भूल से भी न रोइए। ये भीतर से बेहद कातर और निष्ठुर लोग होते हैं। होता है कभी कभी दिल नहीं मानता, आप किसी पुराने के आगे भावविभोर हो जाते हैं। आप कलेजा फाड़ कर रोना चाहते हैं। फिर भी खुद को संभालिये। यह समाज पुरुषों पर कुछ ज़्यादा ही ज़्यादती करता है नहीं तो :क्या औरतों की तरह रोता है?' जैसे जुमले चलन में नहीं आते। पुरुष हो या स्त्री कलेजा सभी का फटता है। रोना सभी को आता है। जीवन के किसी नितांत निजी अवसाद या घुटन के क्षणों में आँसू बहने ही लगते हैं। आतुर हृदय संयम नहीं रख पाता। जब भी कभी ऐसा मौका आये तो प्रयास यही कीजियेगा कि किसी ओछे इंसान के कांधे पर आप आश्रित न रहें। क्योंकि आँसू अनमोल है, इन्हें सस्ते लोगों के सामने बहने नहीं दीजिये। #हीरेंद्र #जीवनकीपाठशाला

Sunday, September 13, 2020

अंतिम प्रणाम रघुवंश प्रसाद सिंह



जीवन का पहला टीवी इंटरव्यू मैंने रघुवंश प्रसाद सिंह का किया था.. तब वो मनमोहन सिंह सरकार में ग्रामीण विकास मंत्री हुआ करते थे.. साल 2006, मैं दूरदर्शन के लिए ट्रेड फेयर कवर कर रहा था.. मंत्री जी किसी को बाइट नहीं दे रहे थे.. मैं धक्का-मुक्की खाते हुए मंच पर चढ़ गया और कहा- 'अंकल आपकी बाइट चाहिये..' वो हँसने लगे.. बोले-' पहली बार आये हो क्या?' मैंने कहा- जी ... और फिर उन्होंने बड़े प्यार से मुझसे बातचीत की। अब कोई भी उनका इंटरव्यू नहीं कर पायेगा। उन्हें अंतिम प्रणाम।

निधन से बस कुछ घंटे पहले ही उन्होंने लालू प्रसाद यादव को चिट्ठी लिख कर पार्टी से अलग होने की बात बता दी थी। उससे पहले वो बीते 32 साल से लालू प्रसाद के साथ हर पल और मुद्दे पर खड़े रहे थे। लालू पर दुनिया भर के आरोप ल लेकिन, रघुवंश बाबू उनके साथ रहकर भी बेदाग रहे। पूरी ज़िंदगी वो जनता से जुड़े सवाल मजबूती से उठाते रहे हैं। उनके निधन के बाद राजनीति के एक युग का अंत भी हो गया।


Monday, August 31, 2020

विदा प्रणब मुखर्जी, एक बच्चे की नज़र से



बाबूजी के साथ एक बार कोलकाता गया था। तारीख़ मुझे अच्छे से याद है- 5 मार्च 1996। हावड़ा ब्रिज पार करते ही नेताजी सुभाष चंद्र बोस मार्ग पर कोल इंडिया का मुख्यालय है। वहीं Indian National Trade Union Congress (INTUC) का कोई कार्यक्रम था। उस दौर में बाबूजी का अलग ही जलवा था। मैं मंच पर बाबूजी के साथ बैठा था। बगल में एक और सज्जन थे। मेरे गाल को प्यार से खींचते हुए उन्होंने पूछा- की नाम? मैंने कहा- हीरेंद्र झा। उन्होंने बड़े ही प्यार से लेकिन आत्मविश्वास भरते हुए कहा- झाजी का बेटा है, मन से पढ़ना, खूब पढ़ना। मुझे अच्छे से याद है कि बाद में उन्होंने किसी से मंगा कर मुझे एक पैकेट बिस्किट भी पकड़ाया। वो मेरी उनसे इकलौती मुलाकात है। आज जब प्रणव मुखर्जी के निधन की ख़बर आयी तो मैं वहीं इंटक के कार्यक्रम में पहुँच गया। मेरा मन थोड़ा सा इमोशनल हो गया। बड़े लोग, विरले लोग ऐसे ही होते हैं शायद जो एक बच्चे को भी एक ही मुलाकात में वो अहसास दे जाते हैं जो कई बार कोई विश्वविद्यालय भी नहीं दे पाता! नमन करता हूँ आपको। ईश्वर आपको अपने श्री चरणों में स्थान दें।

Saturday, August 29, 2020

हीरेंद्र की डायरी: अतीत और भविष्य नहीं बल्कि वर्तमान के प्रति सजगता ज़रूरी

लॉक डाउन में अकेले रहते हुए बहुत सी बातें मेरे मन में चलती रही हैं। आज हर तरफ जिस तरह का माहौल है, ऐसे में मुझे सब कुछ फ़र्ज़ी लगने लगा है। लगने लगा है कि ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है? यह जान गया हूँ कि जीने के लिए बहुत ज़्यादा भौतिक वस्तुओं की ज़रूरत नहीं होती। सुकून से जो मन को ठीक लगे, सहज भाव से जितना हो सके करते रहना चाहिए। पागलों की तरह किसी चीज़ के पीछे भागते रहने की बेचैनी से कुछ हासिल नहीं होता। ऐसे में आदमी कुछ पा भी ले तो नई बेचैनियां ढूंढ लेगा। इसका कोई अंत नहीं।  आनंद और गरिमा के साथ जीवन जीना इसी में असल सुख है। छोटी छोटी बातों पर जितने समझौते आज हम कर रहे हैं, इसकी कोई ज़रूरत ही नहीं है। उतना तो हम जीने वाले भी नहीं, जितना किसी चीज़ के लिए मरे जा रहे हैं। सुकून, मन की शांति यही बड़ी चीज़ है। मन में उमंग, उल्लास और उत्साह बचा रहे यही असली आनंद है। मेरे भीतर संसार की किसी वस्तु के लिए अब कोई ललक नहीं बाकी है। मेरा मन बस अब इसी में रमता जा रहा है कि मैं कैसा महसूस कर रहा हूँ। अगर मैं अच्छा महसूस कर रहा हूँ तो ठीक। नहीं तो वो करता हूँ जिससे अच्छा महसूस कर सकूँ। उन सभी लोगों से दूर होता जा रहा हूँ जो मुझे छोटा या बुरा महसूस कराते हैं। अपनी छोटी सी दुनिया में कुछ गिने चुने चेहरों के साथ मैं बहुत खुश हूँ। रोज़ एक घंटा काम करके भी मैं इतना कमा लेता हूँ कि महीने भर शांति से जीवनयापन कर सकूँ। इससे ज़्यादा मुझे कुछ चाहिए भी नहीं। मेरा स्वाभिमान बचा रहे, बस यही एक भाव जगता है। मैं अपने वर्तमान को लेकर बहुत ही स्पष्ट और सजग हो चला हूँ। अतीत और भविष्य से मुझे अब बहुत ज़्यादा प्रयोजन नहीं। जो है अभी और इसी पल में है। बात लंबी हो गयी है। आगे की कहानी फिर सही। आज बस इतना ही।

#हीरेंद्रकीडायरी

Thursday, August 27, 2020

राजदीप सरदेसाई और रिया चक्रबर्ती की बातचीत

*वो ड्रग्स लेता था, मैं मना करती थी पर वो अपनी मर्ज़ी का मालिक था। 
*उसने 5 साल तक अपने पिता से बात नहीं की। पिता से उसकी नहीं पटती थी क्योंकि उन्होंने उसकी माँ को छोड़ दिया था। 
*उसकी बहन शराब के नशे में मुझे मोलेस्ट कर चुकी है।
*एक बार उसने मेरे मेकअप का पैसा दिया था तो मुझे ठीक नहीं लगा तो मैंने 35 हज़ार रुपये उसके एकाउंट में ट्रांसफर कर दिए थे।

आज रिया चक्रवर्ती ने आजतक के राजदीप सरदेसाई को इंटरव्यू देते हुए यह सब बातें कहीं। महेश भट्ट को पितातुल्य भी बताया। यह भी कहा कि मेरी माँ आज कल में अस्पताल में भर्ती होने वाली हैं। उन्होंने जोर देकर कहा कि मुझे भी लगने लगा है कि मैं सुसाइड कर लूँ, नहीं तो मुझे और मेरे परिवार को गोली से मारकर मामला ही ख़त्म कर दिया जाए।


मैंने बस रिया की बात लिखी है। अपने मन से एक शब्द भी नहीं लिखा ऊपर। मैं कोई राय या फ़ैसला नहीं दे रहा हूँ पर आज मुझे यक़ीन हो गया है कि सुशांत ने सुसाइड नहीं किया है। 

हीरेंद्र झा

Wednesday, August 26, 2020

एक प्रेमी की डायरी का पंद्रहवाँ पन्ना : हीरेंद्र झा

एक प्रेमी की डायरी : 15


बहुत दिन हुए यार तेरे साथ बैठकर तसल्ली से बात तक नहीं हुई। ऐसे में तुम ही कहो ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है? इस दुनिया में मुझे जो कुछ भी पाना है वो सब स्थगित किये बैठा हूँ। सब कुछ परसों पर टाल रखा है कि शायद कल तुमसे मिलना हो सके। कितनी ही शामें हमने यूँ ही बतकही करते हुए गुज़ार दी हैं, उतने तो मैं तारों को भी नहीं पहचानता। हाँ इकलौते चाँद को जानता हूँ जो गवाह रहा है हमारे मिलन का। एकांत की अपनी एक मर्यादा होती है, होनी भी चाहिए। लेकिन, कभी कभी यह एकांत अपनी सीमा लाँघ कर मुझ पर इस कदर हावी हो जाता है कि जैसे मेरे अस्तित्व पर कोई ग्रहण लग गया हो। कुछ नहीं सूझता। की-बोर्ड पर टाइप करते हुए ख़ुद को संभालने की कोशिश में जुट जाता हूँ। कभी कभी संभल भी जाता हूँ और कई बार बस केवल तड़प कर रह जाता हूँ। ऐसे में कोई मेरे सिरहाने आसमान भी रख दे तो भी वो व्यर्थ मालूम होता है। मुझे वो आसमान नहीं चाहिए जिसके चाँद में तुम्हारा चेहरा, जिसके सूर्य में तुम्हारे प्रेम की तपिश और जिसके इंद्रधनुष में तेरा रंग न हो। 

हीरेंद्र झा

(एक प्रेमी की डायरी से चुनकर कुछ पन्ने हम आपके लिए लाते रहेंगे)

Sunday, August 02, 2020

राखी पर पढ़िए एक भाई की पाती : हीरेंद्र झा

रक्षाबंधन विशेष: ‘दुनिया की सभी बहनों की कलाई पर स्नेह का एक धागा मेरा भी’: हीरेंद्र झा


आज देश भर में रक्षाबंधन का पर्व बड़ी ही धूम-धाम से मनाया जा रहा है। भाई- बहन के पवित्र रिश्ते का यह पर्व बेहद ख़ास होता है। इस दिन हर बहन अपने प्यारे भाई की कलाई पर राखी बांधती है और इसे एक प्रतीक के रूप में देखा जाता है कि भाई अपनी बहन की रक्षा करेगा। मुझे कहने दीजिए कि यह प्रतीक बहुत पहले ही बदल देना चाहिए था। सच तो यह है कि वो बहनें ही हैं जिनकी दुआएँ भाई की रक्षा करती रही हैं। भाई उनकी रक्षा करेंगे यह कहकर कहीं न कहीं हम बहनों को कमजोर आँकने की गलती सदियों से करते आए हैं। आज के दिन दुनिया की सभी बहनों की कलाई पर स्नेह का एक धागा मेरा भी हो, ताकि उनकी दुआएँ यूं ही करती रहें हम भाइयों की रक्षा!
लिखने वालों ने कभी दीदी और बहन पर उस तरह से कलम नहीं चलाई जिस तरह से माँ, बेटी या महबूब पर लिखा है। आखिर बहनों के साथ यह भेदभाव क्यों? मैं समझता हूँ दीदी या बहन इस दुनिया का एक मात्र ऐसा रिश्ता है जहां कोई मोल-भाव नहीं होता। जहां कोई अपेक्षा नहीं रहती। बरसों बाद मिलने पर भी दीदी अपने भाई को उसकी पसंदीदा डिश खिलाना नहीं भूलती। कभी कोई शिकायत नहीं करती। महीनों बाद भी फोन करो तो यह ताना नहीं मारती कि तुम तो भूल ही गए? यह सब मैं अपने अनुभव से लिख रहा हूँ।


इस दुनिया का हर वो भाई जिसकी एक भी दीदी हो, उसका बचपन एक राजकुमार की तरह ही गुज़रता है। मैं खुशनसीब हूँ कि मेरी अपनी सात दीदियां हैं और एक छोटी बहन भी। यक़ीनन मेरा बचपन दीदीयों की छाँव में एक राजकुमार की तरह ही गुज़रा है। मुझे याद है, बचपन में जब भी कभी मैं बाहर से खेल कर घर आता तो पलक झपकते ही मेरे सामने एक साथ दो,तीन गिलास पानी के होते। मैं एक-एक घूंट पानी सभी गिलासों से पीता। मेरी सभी दीदियों के हृदय को जैसे ठंडक मिल जाती! जब मैं स्कूल जाने लगा तब सब मिलकर मुझे स्कूल जाने के लिए तैयार किया करतीं। कोई शर्ट पहना रही होतीं तो कोई जूते। कोई मेरे घुँघराले बालों में कंघी कर रही होती तो कोई टिफिन पैक करके बैग में रख देती।
जब भी खेलते हुए मुझे थोड़ी भी देर हो जाया करती तो मैं देखता मेरी कोई न कोई दीदी मुझे खोजते हुए बुलाने को आ गई है। मैंने अपनी माँ को कभी रसोई घर में नहीं देखा। यह पंक्तियाँ लिखते हुए मुझे अपनी दीदियों के हाथों के बने आलू परांठे याद आ रहे हैं, घर छोड़ने के बीस बरस बाद भी वो स्वाद मैं कभी भूल ही नहीं सका। न ही कहीं चखने को मिला।
रंगोली, चित्रहार, रामायण, महाभारत, चंद्रकांता, जंगल बुक दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले ये सभी धारावाहिक मैंने अपनी दीदियों की गोद में बैठकर देखे हैं। मेरे पूरे अस्तित्व पर उन सबकी छाप है। क्या आपने कभी सोचा है कि सारे शास्त्र मातृ-ऋण और पितृ-ऋण की बात करते हैं पर वास्तव में बहनों के ऋण की बात कोई नहीं करता, जो हम कभी नहीं चुका पाते।
हमारा परिवार बड़ा था। बाबूजी सरकारी नौकरी में तयशुदा वेतन पाते थे। लेकिन, सम्मान और स्वाभिमान की सीख मुझे बहनों ने ही सिखाई है। एक-एक करके बाबूजी ने सबकी शादी कर दी और वे अपने घर चली गईं। मेरे बारहवीं पास करते-करते सभी दीदियों की शादी हो चुकी थी। शांति दीदी, क्रांति दीदी, नीलम दीदी, बेबी दीदी, नूतन दीदी, गीता दीदी, किरण दीदी बारी-बारी सब अपने ससुराल चली गईं। सबसे आखिर में छोटी बहन रूबी भी। मैं भी घर छोड़ कर कॉलेज के बाद आगे की पढ़ाई करने दिल्ली चला गया। पढ़ाई और करियर बनाने में ऐसा उलझा कि मैं भूल ही गया कि मैं सात दीदियों और एक बहन का भाई हूँ। आज तक किसी भी दीदी ने मुझसे कभी कोई शिकायत नहीं की। कोई उलाहना नहीं दी, कोई ताना नहीं मारा। बीते बरसों में जब भी उनसे मिला तो उनसे वही प्यार और अपनापन पाया जो दुनिया के और किसी रिश्ते में संभव नहीं। लॉक डाउन और कोरोना संकट के इस साल में भी हर बार की तरह मेरी राखियां मुझ तक पहुँच गई हैं, जिन्हें कलाई पर बांध कर मैं बड़े ताव से इतरा रहा हूँ।


विदा 2021

साल 2021 को अगर 364 पन्नों की एक किताब मान लूँ तो ज़्यादातर पन्ने ख़ुशगवार, शानदार और अपनों के प्यार से महकते मालूम होते हैं। हिसाब-किताब अगर ...