Tuesday, December 23, 2014

सेक्स वर्करों की राह आसान नहीं!!

दिसंबर माह की कवर स्टोरी टटोल रही है सेक्स वर्करों के मन को और ये समझने की कोशिश कर रही है कि क्या वेश्यावृति को वैध करार दे दिया जाए. हमने पाया कि किसी नतीजे पर पहुँच पाना इतना आसान भी नहीं। 

 आधी आबादी पत्रिका में मेरी कवर स्टोरी!!  'अनसुलझा हुआ सा कुछ ' 




#Prostitution, # aadhiaabadi, # sex workers


Monday, December 22, 2014

अरविंद केजरीवाल को फिल्म में विलन लूंगा : मनोज तिवारी

उत्तर-पूर्वी दिल्ली से बीजेपी के सांसद मनोज तिवारी का कहना है कि वह गाते तो हैं ही, लेकिन जल्द ही एक फिल्म भी बनाएंगे और उसमें हीरो चाहे जो भी हो, लेकिन विलन उसमें अरविंद केजरीवाल को ही लेंगे। शाहदरा के रोहताश नगर विधानसभा क्षेत्र में चुनावी सभा के दौरान मनोज तिवारी ने कहा, मैं दिल्ली की गलियों और समस्या को देखकर एक फिल्म बनाने वाला हूं और उसका हीरो चाहे कोई भी हो, लेकिन विलेन मिल गया है, जो 49 दिनों में दिल्ली को 5 साल पीछे कर गया हो, उससे बड़ा विलेन क्या होगा। तिवारी के मुताबिक, वह इस पर फिल्म भी बनाएंगे और यह फिल्म हिट भी जरूर होगी।
                                              तस्वीर में मेरे साथ हैं मनोज तिवारी 

असल में बीजेपी के देशभर के सांसद इन दिनों दिल्ली में नुक्कड़ सभा कर रहे हैं और सबके ही भाषण में दो बाते होती हैं। पहला मोदी सरकार का गुणगान (जो स्वाभाविक है) और दूसरा आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल पर जमकर हमले। बीजेपी औपचारिक रूप से यह नहीं मानती कि उसकी टक्कर दिल्ली में सीधा आम आदमी पार्टी से ही है, लेकिन सभाओं में दिए जा रहे भाषण से उसकी सोच साफ़ है।

Friday, December 19, 2014

मुनव्वर राना

                                  महबूब शायर मुनव्वर राना को साहित्य अकादमी मिलने पर बहुत बधाई !



                                                  थकी-मांदी हुई बेचारियाँ आराम करती हैं
                                                 न छेड़ो ज़ख़्म को बीमारियाँ आराम करती हैं

                                                  सुलाकर अपने बच्चे को यही हर माँ समझती है
                                                 कि उसकी गोद में किलकारियाँ आराम करती हैं

                                                 किसी दिन ऎ समुन्दर झांक मेरे दिल के सहरा में
                                                 न जाने कितनी ही तहदारियाँ आराम करती हैं

                                               अभी तक दिल में रोशन हैं तुम्हारी याद के जुगनू
                                                 अभी इस राख में चिन्गारियाँ आराम करती हैं

                                              कहां रंगों की आमेज़िश की ज़हमत आप करते हैं
                                                    लहू से खेलिये पिचकारियाँ आराम करती हैं                                                                                                                                                                                                                                                                                         - मुनव्वर राना



                                                  सर फिरे लोग हमें दुश्मन-ए-जाँ कहते हैं
                                              हम जो इस मुल्क की मिट्टी को भी माँ कहते हैं

Thursday, December 18, 2014

शबाना आज़मी

शबाना आज़मी
खुशशक्ल भी है वो, ये अलग बात है 
हमको ज़हीन लोग हमेशा अज़ीज़ थे- जावेद अख्तर 




#Shabana Azmi, # Javed Akhtar, # Kaifi Azmi

स्त्रियां निर्णायक भूमिका निभाएं – मनीषा



स्त्रियां मज़बूत बने और निर्णायक भूमिका निभाएं – मनीषा पाण्डेय,फीचर,एडिटर,इंडिया टुडे(हिंदी)

महिलाओं से जुड़े मसलों पर वैसे तो कई लोग लिखते रहे हैं लेकिन इन सबके बीच एक नाम ऐसा भी है जिन्हें लड़कियों के फूल और गज़रे वाली छवि बिलकुल नहीं सुहाती और वो नाम है ‘मनीषा पाण्डेय’ का। मनीषा चाहती हैं कि स्त्रियां मज़बूत बने और निर्णायक भूमिका निभाएं। सोशल मीडिया में भी वो काफी सक्रिय हैं और अपने कलम की जादू से हज़ारों लड़कियों को प्रेरित कर रहीं हैं, उन्हें सपने देखने का हौसला दे रहीं हैं! पत्रकारिता जगत में मनीषा पाण्डेय अपनी खास शैली और खनक के लिए जानी जाती हैं! पढ़ना, लिखना और घूमना यही इनकी ताकत है। कामकाजी महिलाएं चाहे वो मीडिया में हो या समाज में मनीषा को एक रोल मॉडल के रूप में देखती हैं। आधी आबादी पत्रिका के सम्पादक ‘हिरेन्द्र झा ‘ने उनसे बातचीत की। प्रस्तुत है बातचीत के कुछ अंश…

हीरेंद्र - संक्षेप में अपनी यात्रा के बारे में बताएं।
मनीषा- यात्रा बहुत सीधी है। ज्यादा घुमावदार नहीं। पैदाइश इलाहाबाद की है और बचपन कई शहरों में बीता। फिर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन करने के बाद मैं मुंबई चली गई। आगे की पढ़ाई, शुरुआती नौकरी और घर से दूर अपनी आजाद, अकेली जिंदगी को ढूंढने की शुरुआत भी वहीं हुई। शायद मेरे बौद्धिक विकास का काफी सारा क्रेडिट भी उस शहर को ही जाता है। वो हिंदी प्रदेश के बंद समाज से अलग खुली और बेखौफ दुनिया थी, जिसने मुझे खुद को जानने-समझने और अपनी जिंदगी का मकसद ढूंढने में मदद की।

हीरेंद्र -  कामकाजी महिलाओं की चुनौतियों को कैसे देखती हैं?
मनीषा- कामकाजी महिलाएं समाज में औरत की स्थिति को बदल रही हैं, लेकिन उन्हीं के ऊपर जिम्मेदारियों का दोहरा बोझ है। औरतें तो घर से बाहर निकलकर काम तो करने लगीं, लेकिन पुरुषों ने घर के भीतर के काम और जिम्मेदारियों को साझा करना नहीं सीखा। न्यूक्लियर फैमिली ढांचे के कारण घर चलाने से लेकर बच्चों को संभालने तक का सारा बोझ औरतों के सिर पर डाल दिया है। घर के बाहर एक पुरुष प्रधान दुनिया है, जहां स्त्रियों की बौद्धिकता और उनके श्रम को पुरुष गंभीरता से नहीं लेता। वहां भी दोहरी चुनौती है। और घर के भीतर पुरुष की अहंकारी परवरिश औरत को बराबरी की जगह देने के लिए तैयार नहीं। ऐसे में स्त्रियों का स्वाभिमान तो हर कदम पर आहत हो रहा है।

हीरेंद्र - अकेले रहती हैं, परेशानी भी होती होगी।
मनीषा- एक ऐसी दुनिया में, जो पुरुषों की, पुरुषों के द्वारा और पुरुषों के लिए है, वहां तयशुदा नियमों को तोड़कर अपने तरीके का आजाद जीवन चुनने वाली औरत की जिंदगी में परेशानी नहीं होगी, ये कैसे मुमकिन है। शहर चाहे कोई भी हो, किराए पर घर लेने में दिक्कत होती है, मकान मालकिन अपना पवित्रतावादी लेंस हर वक्त ताने आपकी गतिविधियां रिकॉर्ड करती रहती हैं। अपनी कॉलोनी, गली, मुहल्ले और बिल्डिंग में हर घड़ी खुद को अच्छी लड़की साबित करने की चुनौती है। वो िकतनी सीधी-सुशील है, , मुंह फाड़कर हंसती नहीं, ज्यादा तू-तड़ाक नहीं करती, कॉलोनी के लड़कों को देखकर सिर झुकाकर निकल जाती है और जाने क्या-क्या? यहां हर सेकेंड हर कोई कैरेक्टर सर्टिफिकेट देने के लिए तैयार बैठा है। दिक्कतें तो एक हजार हैं, लेकिन एक समय के बाद लड़कियां इन सबका सामना करने का टैलेंट विकसित कर लेती हैं।

हीरेंद्र -  जीवन के प्रति क्या नजरिया रखती हैं?
मनीषा- जीवन बहुत कीमती है, अपनी तमाम विद्रूपताओं, दुखों और निराशा के बावजूद। क्योंकि जो जीवन अवसाद और अकेलापन है, वहीं जीवन खुशी, उम्मीद, और लोगों का साथ भी है। मुझे लगता है कि हर लड़की को अपने जीवन का मकसद खोजने की जरूरत है और उस मकसद को नकारने की भी, जो हमारे परिवार, समाज, संस्कारों से लेकर सिनेमा और विज्ञापन तक लड़कियों के दिमागों में ठूंस रहे हैं यानी शादी, परिवार, बच्चे। अच्छी बहू, पत्नी, बेटी और मां बनना ही जीवन का अंतिम लक्ष्य है।

हीरेंद्र - क्या परिवार और शादी के खिलाफ हैं।
मनीषा- नहीं। मैं परिवार और शादी के खिलाफ नहीं, उसके मौजूदा ढांचे के खिलाफ हूं। पुराने फैमिली स्ट्रक्चर में औरतें घर के बाहर तो काम नहीं करती थीं। अब कर रही हैं। अगर घर के बाहर की दुनिया बदली तो घर के भीतर की दुनिया भी तो बदलनी चाहिए। बच्चा पालना अकेले औरत की जिम्मेदारी क्यों है। डाइपर चेंज करना मर्दानगी के खिलाफ क्यों? पुरुष क्यों नहीं खाना बना सकता या घर की सफाई कर सकता है। और दूसरे जाति और संपत्ति आधारित विवाह अपने आप में एक क्रूर बात है। दो लोगों का रिश्ता आपसी प्रेम और समझदारी से नहीं, बल्कि जाति, धर्म, अच्छी नौकरी और संपत्ति की जमीन पर बन रहा है। ये गलत नहीं है क्या?

हीरेंद्र -  सपनों की क्या अहमियत है हमारी जिंदगी में।

मनीषा- पाश की कविता पढ़ी है न – सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना। सपने नहीं तो जिंदगी नहीं। औरतें जब तक अपने लिए बेहतर जिंदगी, प्रेम, सुख और आजादी के सपने नहीं देखेंगी तो उन्हें पूरा करने के लिए कदम कैसे उठाएंगी। सपने ही तो बदलाव की बुनियाद हैं। लेकिन फिर वही समस्या – लड़कियों के दिमाग उतने ही और वैसे ही सपने देखते हैं, जैसा उन्हें सिखाया गया है। सफेद घोड़े पर आने वाले राजकुमार के सपने, यूएस में रहने वाले अमीर पति के सपने। उन सपनों की कोई गारंटी नहीं है। इसलिए अब अपने लिए सपने देखने की शुरूआत करनी चाहिए। मेरा जीवन, मेरा फैसला, मेरे सपने।

हीरेंद्र - ईश्वर पर कितनी आस्था है?
मनीषा- बिलकुल भी नहीं। मैं नास्तिक हूं। ईश्वर के अस्तित्व में मेरा कोई विश्वास नहीं।

हीरेंद्र -  ताकत और कमजोरी।
मनीषा- इस सवाल का जवाब मुझसे ज्यादा शायद मेरे करीबी लोग दे पाएं। देखिए, जिन चीजों को लोग मेरी ताकत समझते हैं, वो वक्त के साथ धीरे-धीरे आई है। ना बोलने की ताकत, पुरुषों के आधिपत्य का विरोध करने की ताकत, अकेले अपने बूते अपना जीवन बना सकने की ताकत, औरताना कमजोरियों से मुक्त होने की ताकत – ये तो हासिल की हुई चीजें हैं। कमजोरियां बहुत सारी हैं। दुनिया के साथ मीजाज बिठाने में दिक्कत होती है, ये मेरी सबसे बड़ी कमजोरी है। मेरे जीवन में शायद कोई डिसिप्लिन नहीं है। पढ़ रही हूं तो पढ़ती ही जाऊंगी, घूम रही हूं तो घूमती ही रहूंगी। सबकुछ एक्सट्रीम पर होता है। बीच का कोई रास्ता नहीं।

हीरेंद्र -  पारिवारिक मूल्यों की बहुत बात होती है।

मनीषा- पारिवारिक मूल्यों से आपका क्या आशय है। मतलब कि प्यार, एक-दूसरे का सम्मान, एक-दूसरे का ख्याल रखना, अच्छे-बुरे वक्त में हाथ पकड़ना। प्रेम और साझेदारी। बहुत अच्छे मूल्य हैं, लेकिन सोचने वाली बात है कि क्या ये बातें सचमुच हैं या ये हमारे खामख्याली हैं। स्त्रियों के जिस त्याग, सेवा और समर्पण भाव को पारिवारिक मूल्यों का नाम देकर इतना महिमामंडित किया जाता है, वो दरअसल दबी-कुचली, हजारों सालों से उत्पीडि़त और हाशिए पर ढकेल दी गई औरतों की मजबूरी है। जो औरत आत्मनिर्भर नहीं, जिसके पास चुनने के लिए कोई और विकल्प नहीं, वो सेवा ही करेगी। औरतें तो पति, बच्चों, परिवार के लोगों की इतनी सेवा करती हैं, लेकिन औरतों की सेवा कौन करता है। इसका मतलब कि ये बराबरी का रिश्ता तो नहीं ही है। जब तक दो स्वतंत्र व्यक्तियों के बीच बराबरी के संबंध नहीं होंगे, तब तक सेवा-समर्पण जैसी बातें गुलामी के अलावा और कुछ नहीं।

हीरेंद्र -  फैशन के प्रति जो आकर्षण है, लड़कियों में उसके बारे में क्या कहेंगी।
मनीषा- खूबसूरत दिखने में कोई बुराई नहीं, लेकिन खूबसूरती के पैमाने बाजार तय करे तो ये गलत है। बाजार भी औरत को शरीर में रिड्यूस कर रहा है। उसकी बुद्धि को नकार रहा है। इसलिए आत्मविश्वास, बुद्धिमत्ता और साहस ही वो सबसे कमाल के कॉस्मैटिक हैं, जिसे पहनकर औरत सबसे खूबसूरत नजर आएगी।

हीरेंद्र -  मीडिया में महिलाओं के लिए कैसा माहौल है।
मनीषा- जैसा समाज में है, घरों के अंदर है, परिवारों में है, पूरी दुनिया में है। मीडिया कोई समाज से कटा हुआ टापू तो नहीं कि वहां पितृसत्ता नहीं होगी। मर्दों का आधिपत्य हर जगह है। मीडिया में भी।

हीरेंद्र -  सिनेमा देखती हैं। जिस तरीके से फिल्मों और विज्ञापनों में महिलाओं को पेश किया जाता है, उसे आप कैसे देखती हैं।
मनीषा- सिनेमा और विज्ञापन बनाने वाला भी मर्दवादी दिमाग ही है। पुरुषों के अंडरवियर से लेकर उनकी शेविंग क्रीम और ट्रक के टायर तक बेचने के लिए औरत का शरीर चाहिए। हर पुरुषवादी व्यवस्था स्त्री को सिर्फ देह समझती है, क्योंकि उसे बनाने वाला और उसका खरीदार, दोनों ही पुरुष हैं।

हीरेंद्र -  घूमती बहुत हैं आप।
मनीषा- घुमक्कड़ी जिंदगी की सबसे पहली किताब है। आखिर स्त्रियों में वैकल्पिक समझ आएगी कहां से। क्योंकि परिवार तो नहीं सिखा रहे, धर्मग्रंथ भी नहीं, टीवी, विज्ञापन, अखबार कोई भी तो स्त्रियों के दिल -दिमाग, आजादी की बात नहीं कर रहे। ये समझ तो किताबों और दुनिया की बेहतरीन फिल्मों और घुमक्कड़ी से ही हासिल होगी।

हीरेंद्र - प्रेम पर क्या कहेंगी।

मनीषा- प्रेम जीवन को सहने और जीने लायक बनाता है, बशर्ते वो सचमुच प्रेम हो। फिलहाल इस देश की लड़कियों को एक पुरुष के साथ रिश्ते में प्रेम से ज्यादा इज्जत की जरूरत है। प्रेम का मायाजाल तो बहुत फैला हुआ है, लेकिन स्त्रियों के दिमाग और काम की रिस्पेक्ट कोई नहीं करता। पहले सम्मान करना सीखो, फिर प्रेम की बात करेंगे।

हीरेंद्र -  आज की युवतियों के लिए कोई संदेश।
मनीषा- जीवन का मकसद बढि़या पति पाना नहीं है। जीवन का मकसद है कुछ होना, बनना, अपने होने के मायने तलाशना। आजादी और बराबरी के साथ अपनी शर्तों पर जीवन जीना। फिलहाल लड़कियों को अपनी पढ़ाई और कॅरियर को बहुत गंभीरता से लेना चाहिए। आर्थिक आत्मनिर्भरता पहला लक्ष्य हो। 18 साल की उम्र में प्रेम करें, लेकिन प्रेम को ही अंतिम मंजिल न मान लें। उसके लिए सबकुछ न्यौछावर न करें। याद रखें, ये मेरा जीवन है और इस पर हक है मेरा।  प्रेम करें, लेकिन प्रेम को ही अंतिम मंजिल न मान लें। उसके लिए सबकुछ न्यौछावर न करें। याद रखें, ये मेरा जीवन है और इस पर हक है मेरा।

(मूलतः आधी आबादी पत्रिका में प्रकाशित. आधी आबादी से साभार. इंटरव्यू आधी आबादी के सहायक संपादक ‘हीरेंद्र झा’ ने लिया)

 हीरेंद्र झा

# Manisha Pandey,# Interview

Wednesday, December 17, 2014

132 बच्चों की स्कूल में की हत्या

पाकिस्तानी तालिबान ने 132 बच्चों की स्कूल में की हत्या

पाकिस्तानी तालिबान के आतंकवादियों ने पेशावर में आर्मी स्कूल पर हमला कर 141 लोगों की हत्या कर दी। पाकिस्तानी सेना ने बताया कि इनमें से 132 स्कूली बच्चे हैं। पाक आर्मी ने कहा कि इस हमले में शामिल सभी सात आतंकी मारे गए हैं। हमले में जख्मी बच्चों को हॉस्पिटल में भर्ती किया गया है। हॉस्पिटल में पूरी तरह से मातम का माहौल है। परेशान पैरंट्स बच्चों की सिसकते हुए तलाश करते मिले। तालिबान की पाकिस्तान में इस घातक हमले की चारों तरफ से घोर निंदा हो रही है।

अमरीका के विदेश मंत्री जॉन केरी ने कहा है, "सिडनी और पेशावर की घटना से साबित हुआ है कि स्थानीय आतंकवाद का ख़तरा दरअसल वैश्विक आतंकवाद का ख़तरा भी है. इसलिए अमरीका ज़्यादा देशों के साथ सहयोग कर रहा है."

वहीं ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने कहा है कि पाकिस्तान से आने वाली ख़बर सदमे में डालने वाली है और ये बहुत डरावना है कि बच्चों को महज़ स्कूल जाने के लिए मारा जा रहा है जबकि अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति ने इस ग़ैर-इस्लामिक बताया है.

वहीं नरेंद्र मोदी ने ट्विटर पर लिखा, "यह असवंदेनशील कार्रवाई है, जिसकी बर्बरता बयां नहीं की जा सकती.. जिसमें इंसानों में से भी सबसे मासूमों की जान ली गई है- स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे."

नोबेल पुरस्कार जीतने वाली मलाला यूसुफ़ज़ई ने भी हमले की निंदा की है और कहा, "इस घटना से मेरा दिल टूट गय है. मैं इस कायरतापूर्ण कदम की मैं निंदा करती हूँ और पाकिस्तान की सरकार और सेना के साथ हूँ. मैं और दुनिया के लाखों लोग इन बच्चों के लिए शोक मना रहा हैं लेकिन हम हार नहीं मानेंगे."

Monday, December 15, 2014

जादुई धूप में

जादुई धूप में
पार्क की बेंच पर बैठा....
कुछ महिलाओं को स्वेटर बुनते देख रहा हूँ...
वक्त का रेशा-रेशा
ऊनी गोले के धागे सा
लुढ़क रहा है....
कुछ बच्चे फुटबॉल खेल रहे...
चोट खाकर भी गेंद मचल रहा है..
फुदक रहा है...
जश्न मना रहा है...
कुछ लड़कियां बैटमिंटन थामे...
हर भार को धता बताकर...
शटल को नहीं
बल्कि अपनी
उम्मीदों को उछाल रही हैं...

एक गोरी सी लड़की...
काले लिबास में
अपने बालों को सुखाती...
लटों को सुलझाती...
खुशबू बिखेरती...
समय को रोके बैठी है....
उधर अंकल जी
अखबार पकड़े ऊंघ रहे हैं....
इधर हीरेंद्र
मोबाइल के कीबोर्ड से
खेल रहे हैं...
जादुई धूप में....

हीरेंद्र झा #  Hirendra Jha

विदा 2021

साल 2021 को अगर 364 पन्नों की एक किताब मान लूँ तो ज़्यादातर पन्ने ख़ुशगवार, शानदार और अपनों के प्यार से महकते मालूम होते हैं। हिसाब-किताब अगर ...